SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 401
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयसार રૂ૮૨ धर्म के श्रद्धान के अभाव से सत्य श्रद्धान भी नहीं है। ऐसा होने पर निश्चयनय के द्वारा व्यवहारनय निषेध योग्य ही है।" आचारादि ज्ञानं जीवादि दर्शनं च विज्ञेयम् । षड्जीवनिकायं च तथा भणति चरित्रं तु व्यवहारः ।।२७६।। आत्मा खलु मम ज्ञानमात्मा मे दर्शनं चरित्रं च। आत्मा प्रत्याख्यानमात्मा मे संवरो योगः ।।२७७।। इसप्रकार इन गाथाओं में यही कहा गया है कि जैन शास्त्रों का अध्ययन-मनन करके जैनागम में निरूपित व्रत-शील-संयमादि का यथासंभव निर्दोष पालन करता हुआ भी अभव्यजीव अज्ञानी ही रहता है, मिथ्यादृष्टि ही रहता है; उसे न तो जैनागम के अभ्यास का आत्मज्ञानरूप वास्तविक लाभ ही प्राप्त होता है और न उसके व्रत-शील-संयम सम्यक्चारित्ररूप ही होते हैं। उसका सम्पूर्ण धर्माचरण भोगों का ही हेतु होता है, मुक्ति का हेतु नहीं; क्योंकि न तो वह परमागम के मर्म को ही समझ पाता है और न वह शुभभावरूप पुण्यकर्म से ऊपर ही उठ पाता है। वस्तुत: बात यह है कि वह वास्तविक सुख को जानता ही नहीं है, पहिचानता ही नहीं है; वह तो सांसारिक सुख को ही सुख जानता-मानता है और पुरुषार्थ भी उसी के लिए करता है। यही कारण है कि वह शुभभावरूप पुण्यकर्म से ऊपर नहीं उठ पाता है। इसीकारण अज्ञानी के धर्म को भोगों का निमित्त कहा गया है। अब आगामी गाथाओं में 'व्यवहारनय निषेध्य है और निश्चयनय निषेधक' - यह स्पष्ट करने के लिए निश्चय-व्यवहार नयों का स्वरूप स्पष्ट करते हैं; जो इसप्रकार है - (हरिगीत ) जीवादि का श्रद्धान दर्शन शास्त्र-अध्ययन ज्ञान है। चारित्र है षट्काय रक्षा - यह कथन व्यवहार है ।।२७६।। निज आतमा ही ज्ञान है दर्शन चरित भी आतमा। अर योग संवर और प्रत्याख्यान भी है आतमा ।।२७७।। आचारांगादि शास्त्र ज्ञान है, जीवादि तत्त्व दर्शन है और छह जीवनिकाय चारित्र है - ऐसा व्यवहारनय कहता है। निश्चय से मेरा आत्मा ही ज्ञान है, मेरा आत्मा ही दर्शन है, मेरा आत्मा ही चारित्र है, मेरा आत्मा ही प्रत्याख्यान है और मेरा आत्मा ही संवर व योग है। तात्पर्य यह है कि आचारांगादि शास्त्रों का ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है, जीवादि नौ पदार्थों का श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है और छह प्रकार के जीव निकायों की दया पालना ही सम्यक्चारित्र है - ऐसा व्यवहारनय कहता है; किन्तु निश्चयनय के अनुसार आत्मज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है, आत्मदर्शन ही सम्यग्दर्शन है और आत्मरमणता ही सम्यक्चारित्र है और यही आत्मज्ञान, आत्मश्रद्धान व आत्म
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy