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बंधाधिकार महाव्रतरूप व्यवहारचारित्र का पालन अभव्य भी करता है; तथापि वह अभव्य चारित्ररहित अज्ञानी और मिथ्यादृष्टि ही है; क्योंकि वह निश्चयचारित्र के कारणभूत ज्ञान-श्रद्धान से शून्य है।
तस्यैकादशाङ्गज्ञानमस्ति इति चेत् - मोक्षं हि न तावदभव्यः श्रद्धत्ते, शुद्धज्ञानमयात्मज्ञानशून्यत्वात् । ततो ज्ञानमपि नासौ श्रद्धते । ज्ञानमश्रद्धधानश्चाचाराधेकादशांगं श्रुतमधीयानोऽपि श्रुताध्ययनगुणाभावान्न ज्ञानी स्यात् । स किल गुणः श्रुताध्ययनस्य यद्विविक्तवस्तुभूतज्ञानमयात्मज्ञानं, तच्च विविक्तवस्तुभूतं ज्ञानमश्रद्दधानस्याभव्यस्य श्रुताध्ययनेन न विधातुं शक्येत । ततस्तस्य तद्गुणाभावः । ततश्च ज्ञानश्रद्धानाभावात् सोऽज्ञानीति प्रतिनियतः।।
तस्य धर्मश्रद्धानमस्तीति चेत् - अभव्यो हि नित्यकर्मफलचेतनारूपं वस्तु श्रद्धत्ते, नित्यज्ञानचेतनामात्रं न तु श्रद्धत्ते, नित्यमेव भेदविज्ञानानहत्वात् । ततः स कर्ममोक्षनिमित्तं ज्ञानमात्रं भूतार्थं धर्मं न श्रद्धत्ते, भोगनिमित्तं शुभकमात्रमभूतार्थमेव श्रद्धत्ते । तत एवासौ अभूतार्थधर्मश्रद्धानप्रत्ययनरोचनस्पर्शनैरुपरितनग्रैवेयकभोगमात्रमास्कंदेत्, न पुनः कदाचनापि विमुच्येत । ततोऽस्य भूतार्थधर्मश्रद्धानाभावात् श्रद्धानमपि नास्ति । एवं सति तु निश्चयनयस्य व्यवहारनयप्रतिषेधो युज्यत एव ।।२७३-२७५॥ कीदृशौ प्रतिषेध्यप्रतिषेधको व्यवहारनिश्चयनयाविति चेत् -
आयारादी णाणं जीवादी दंसणं च विण्णेयं । छज्जीवणिकं च तहा भणदि चरित्तं तु व्यवहारो।।२७६।। आदा खु मज्झ गाणं आदा मे दंसमं चरितं च।
आदा पच्चक्खाणं आदा मे संवरो जोगो ।।२७७।। यदि कोई यह कहे कि उसे ग्यारह अंगों का ज्ञान है तो उससे कहते हैं कि प्रथम तो वह अभव्यजीव शुद्धज्ञानमय आत्मा के ज्ञान से शून्य होने के कारण मोक्ष की ही श्रद्धा नहीं करता; इसलिए वह ज्ञान की भी श्रद्धा नहीं करता। ज्ञान की श्रद्धा न करता हुआ वह अभव्य आचारांग आदि ग्यारह अंगरूप श्रुत (शास्त्रों) को पढ़ता हुआ भी शास्त्रपठन के गुण को प्राप्त नहीं होता और इसीकारण ज्ञानी भी नहीं है।
भिन्नवस्तुभूत ज्ञानमय आत्मा का ज्ञान ही शास्त्रपठन का असली गुण है। ऐसा गुण शास्त्रपठन के द्वारा अभव्य को प्रगट नहीं हो सकता; क्योंकि वह भिन्न वस्तुभूत ज्ञान की श्रद्धा से रहित है। तात्पर्य यह है कि अभव्य को भिन्नवस्तुभूत आत्मा का ज्ञान-श्रद्धान नहीं हो सकता; इसलिए उसके शास्त्रपठन के गुण का अभाव है। इसीकारण वह अज्ञानी है।
इस पर यदि कोई कहे कि उसे धर्म का श्रद्धान है तो उससे कहते हैं कि सदा ही भेदविज्ञान के अयोग्य होने से अभव्यजीव कर्मफलचेतनारूप वस्तु की ही नित्य श्रद्धा करता है, ज्ञानचेतनामात्र वस्तु की श्रद्धा कभी नहीं करता; इसीकारण वह कर्मों से छूटने के निमित्तरूप ज्ञानमात्र भूतार्थ धर्म की श्रद्धा नहीं करता; अपितु भोग के निमित्तरूप शुभकर्ममात्र अभूतार्थ धर्म की श्रद्धा करता है; इसीलिए वह अभूतार्थ धर्म की श्रद्धा, प्रतीति, रुचि और स्पर्शन से अन्तिम ग्रैवेयक तक के भोगमात्र को प्राप्त होता है; किन्तु कर्मों से कभी भी मुक्त नहीं होता। इसलिए उसे भूतार्थ