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समयसार उक्त दोनों कारणों से सहज ही सिद्ध हो जाता है कि पराश्रित होने से व्यवहारनय हेय है और आत्माश्रित होने से निश्चयनय उपादेय है।
व्रतसमितिगुप्तयः शीलतपो जिनवरैः प्रज्ञप्तम् । कुर्वन्नप्यभव्योऽज्ञानी मिथ्यादृष्टिस्तु ।।२७३।। मोक्षमश्रद्दधानोऽभव्यसत्त्वस्तु योऽधीयीत । पाठो न करोति गुणमश्रद्दधानस्य ज्ञानं तु ।।२७४।। श्रद्दधातिच प्रत्येति च रोचयति स तथा पुनश्च स्पृशति।
धर्मं भोगनिमित्तं न तु स कर्मक्षयनिमित्तम् ।।२७५।। शीलतप:परिपूर्णं त्रिगुप्तिपंचसमितिपरिकलितमहिंसादिपंचमहाव्रतरूपं व्यवहारचारित्रं अभव्यो -ऽपि कुर्यात्; तथापि स निश्चयचारित्रोऽज्ञानी मिथ्यादृष्टिरेव, निश्चयचारित्रहेतुभूतज्ञानश्रद्धानशून्यत्वात्।
विगत गाथा की टीका में कहा गया है कि व्यवहारनय का आश्रय तो अभव्य भी करता है। अत: यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि अभव्य के व्यवहारनय का आश्रय किसप्रकार होता है, ग्यारह अंग और नौ पूर्व तक का ज्ञान हो जाने पर भी उसे अज्ञानी क्यों कहा जाता है और उसका श्रद्धान सच्चा क्यों नहीं है ? इन प्रश्नों के उत्तर में ही आगामी गाथायें लिखी गई हैं, जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
( हरिगीत ) व्रत-समिति-गुप्ती-शील-तप आदिकसभी जिनवरकथित। करते हुए भी अभव्यजन अज्ञानि मिथ्यादृष्टि हैं ।।२७३।। मोक्ष के श्रद्धान बिन सब शास्त्र पढ़कर भी अभवि। को पाठ गुण करता नहीं है ज्ञान के श्रद्धान बिन ।।२७४।। अभव्यजन श्रद्धा करें रुचि धरें अर रच-पच रहें।
जो धर्म भोग निमित्त हैं न कर्मक्षय में निमित्त जो।।२७५।। जिनवरदेव के द्वारा कहे गये व्रत, समिति, गुप्ति, शील और तप करते हुए भी अभव्यजीव अज्ञानी और मिथ्यादृष्टि है।
मोक्ष की श्रद्धा से रहित वह अभव्यजीव यद्यपि शास्त्रों को पढ़ता है; तथापि ज्ञान की श्रद्धा से रहित उसको शास्त्रपठन गुण नहीं करता। तात्पर्य यह है कि शास्त्रपठन से उसे असली लाभ प्राप्त नहीं होता।
वह अभव्यजीव भोग के निमित्तरूप धर्म की ही श्रद्धा करता है, उसकी ही प्रतीति करता है, उसी की रुचि करता है और उसी का स्पर्श करता है; किन्तु कर्मक्षय के निमित्तरूप धर्म की वह न तो श्रद्धा करता है, न रुचि करता है, न प्रतीति करता है और न वह उसका स्पर्श ही करता है।
इन गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - “शील और तप से परिपूर्ण, तीन गुप्ति और पाँच समितियों में सावधान, अहिंसादि पाँच