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________________ ३७९ बंधाधिकार निर्वाण को प्राप्त होते हैं। इस गाथा का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - आत्माश्रितो निश्चयनयः, पराश्रितो व्यवहारनयः । तत्रैवं निश्चयनयेन पराश्रितं समस्तमध्यवसानं बंधहेतत्वेन ममक्षोः प्रतिषेधयता व्यवहारनय एव किल प्रतिषिद्धः, तस्यापि पराश्रितत्वाविशेषात् । प्रतिषेध्य एव चायं, आत्माश्रितनिश्चयनयाश्रितानामेव मुच्यमानत्वात्, पराश्रितव्यवहारनयस्यैकांतेनामुच्यमानेनाभव्येनाप्याश्रीयमाणत्वाच्च ।।२७२।। कथमभव्येनाप्याश्रीयते व्यवहारनयः इति चेत् - वदसमिदीगुत्तीओ सीलतव जिणवरेहि पण्णत्तं । कुव्वंतो वि अभव्वो अण्णाणी मिच्छदिट्ठी दु॥२७३।। मोक्खं असद्दहतो अभवियसत्तो दु जो अधीएज्ज। पाठो ण करेदि गुणं असद्दहंतस्स णाणं तु ।।२७४।। सद्दहदि य पत्तेदि य सेचेदिय तह पुणो य फासेदि। धम्मं भोगणिमित्तं ण दु सो कम्मक्खयणिमित्तं ।।२७५।। “आत्माश्रित निश्चयनय है और पराश्रित व्यवहारनय । बंध का कारण होने से पराश्रित समस्त अध्यवसानों को मुमुक्षुओं के लिए निषेध करते हुए आचार्यदेव ने पराश्रितता की समानता होने से निश्चयनय से एकप्रकार से समस्त व्यवहार का ही निषेध कर दिया है। इसप्रकार यह व्यवहारनय निषेध करने योग्य ही है; क्योंकि मुक्ति तो आत्माश्रित निश्चयनय का आश्रय करनेवालों को ही प्राप्त होती है तथा पराश्रित व्यवहारनय का आश्रय तो एकान्ततः मुक्त नहीं होनेवाला अभव्य भी करता है।" इस गाथा में व्यवहारनय को हेय और निश्चयनय को उपादेय सिद्ध किया गया है; क्योंकि व्यवहार का विषय परवस्तु और भेद है और निश्चयनय का विषय अभेद अखण्ड ज्ञायक-स्वभावी निजात्मा है। व्यवहार को हेय बताते हुए एक बात तो यह कही गई है कि पर के आश्रय से उत्पन्न होनेवाले अध्यवसान ही बंध के कारण हैं - यह बात सुनिश्चित हो जाने पर यह स्वतः ही सुनिश्चित हो जाता है कि व्यवहारनय भी पराश्रित होने के कारण अध्यवसान के समान ही बंध का कारण है; क्योंकि पराश्रयपना दोनों में समानरूप से विद्यमान है। दूसरी बात यह कही गई है कि निश्चय का आश्रय लेनेवालों को ही मुक्ति की प्राप्ति होती है; क्योंकि व्यवहारनय जिन क्रियाकाण्डों और शुभभावों को धर्म कहता है; वे सब तो अभव्यों के भी हो जाते हैं, होते देखे जाते हैं।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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