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समयसार
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असंख्यात लोक परवांन जे मिथ्यात भाव,
तेई विवहार भाव केवली-उकत हैं। एवं ववहारणओ पडिसिद्धो जाण णिच्छयणएण। णिच्छयणयासिदा पुण मुणिणो पावंति णिव्वाणं ॥२७२।।
एवं व्यवहारनयः प्रतिषिद्धो जानीहि निश्चयनयेन । निश्चयनयाश्रिताः पुनर्मुनयः प्राप्नुवंति निर्वाणम् ।।२७२।। जिन्हको मिथ्यात गयौ सम्यक् दरस भयौ,
ते नियत-लीन विवहार सौं मुकत हैं ।। निरविकलप निरुपाधि आतम समाधि,
साधि जे सुगुन मोख पंथ कौं ढुकत हैं। तेई जीव परम दसा मैं थिररूप हैकै,
धरम मैं धुके न करम सौं रुकत हैं।। केवली भगवान ने कहा है कि असंख्यात लोकप्रमाण जो मिथ्यात्वभाव हैं, वे ही व्यवहारभाव हैं। इसलिए जिन जीवों का मिथ्यात्वभाव चला गया है और जिन्हें सम्यग्दर्शन हो गया है; वे जीव निश्चय में लीन रहते हैं और व्यवहार से मुक्त हो गये हैं, व्यवहारातीत हो गये हैं। ऐसे जीव निर्विकल्प निरुपाधि आत्मसमाधि को साधकर सगुण मोक्षमार्ग में तेजी से बढ़ते हैं और परमदशा में स्थिर होकर धर्ममार्ग में तेजी से बढ़ते हुए मुक्ति को प्राप्त करते हैं; कर्मों के रोके रुकते नहीं हैं।
इसप्रकार इस कलश में यही कहा गया है कि सभीप्रकार का व्यवहार कथन असत्यार्थ है और उसके आश्रय से मुक्ति की प्राप्ति नहीं की जा सकती है।
यद्यपि व्यवहारनय भी परमार्थ का ही प्रतिपादन करता है और उसकी उपयोगिता भी है; तथापि उसकी विषयभूत वस्तु के आश्रय से कर्म नहीं कटते हैं; अपितु उसे हबह सर्वथा सत्य मान लेने पर मिथ्यात्व होता है। यही कारण है कि यहाँ सभी प्रकार के व्यवहार को त्यागने का उपदेश दिया गया है। ___ व्यवहारनय की हेयोपादेयता और उपयोगिता के बारे में विस्तृत जानकारी परमभावप्रकाशक नयचक्र से की जा सकती है।
जो बात विगत कलश में कही गई है, अब वही बात इस २७२वीं गाथा में कह रहे हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है
(हरिगीत ) इस तरह ही परमार्थ से कर नास्ति इस व्यवहार की।
निश्चयनयाश्रित श्रमणजन प्राप्ती करें निर्वाण की ।।२७२।। इसप्रकार व्यवहारनय निश्चयनय के द्वारा निषिद्ध जानो तथा निश्चयनय के आश्रित मुनिराज