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बंधाधिकार
उक्त सम्पूर्ण प्रकरण का निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र एक कलश लिखते हैं, जो आगामी गाथा की उत्थानिकारूप भी है।
(शार्दूलविक्रीडित ) सर्वत्राध्यवसानमेवमखिलं त्याज्यं यदुक्तं जिनैस्तन्मन्ये व्यवहार एव निखिलोऽप्यन्याश्रयस्त्याजितः। सम्यनिश्चयमेकमेव तदमी निष्कंपमाक्रम्य किं
शुद्धज्ञानघने महिम्नि न निजे बध्नति संतो धृतिम् ।।१७३।। कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(अडिल्ल ) सब ही अध्यवसान त्यागने योग्य हैं,
यह जो बात विशेष जिनेश्वर ने कही। इसका तो स्पष्ट अर्थ यह जानिये,
अन्याश्रित व्यवहार त्यागने योग्य है।। परमशुद्धनिश्चयनय का जो ज्ञेय है,
शुद्ध निजातमराम एक ही ध्येय है। यदि ऐसी है बात तो मुनिजन क्यों नहीं,
शुद्धज्ञानघन आतम में निश्चल रहें ।।१७३।। आचार्यदेव कहते हैं कि जिनेन्द्र भगवान ने जो यह कहा है कि सर्वपदार्थों के आश्रय से होनेवाले सभी अध्यवसानभाव त्यागने योग्य हैं। इसका आशय हम यह मानते हैं कि उन्होंने पर के आश्रय से उत्पन्न होनेवाले सम्पूर्ण व्यवहार को ही छुड़ाया है। ऐसी स्थिति में ऐसा विचार आता है कि जब ऐसी बात है तो फिर सन्त लोग एक सम्यक् निश्चय को ही अंगीकार करके शुद्धज्ञानघनस्वरूप निज महिमा में, अपने आत्मस्वरूप में स्थिरता को क्यों धारण नहीं करते? तात्पर्य यह है कि ऐसी स्थिति में सन्तों को तो स्वभाव में ही स्थिर रहना चाहिए, उनके लिए तो एकमात्र यही कर्तव्य है।
इस कलश का अर्थ लिखते हुए पाण्डे राजमलजी ने कलश टीका में कतिपय महत्त्वपूर्ण संकेत दिये हैं; जो इसप्रकार हैं -
प्रथम तो वे सन्त' पद का अर्थ सम्यग्दृष्टि जीवराशि करते हैं और दूसरे मिथ्यात्वरूप अध्यवसानभावों को असंख्यात लोकप्रमाण बताते हैं। तीसरे वे व्यवहारभावों को सत्यरूप और असत्यरूप - दो प्रकार के बताते हैं और चौथे वे मिथ्यात्वभावों और व्यवहारभावों को एकवस्तु कहते हैं।
कलश टीका के इन्हीं कथनों को आधार बनाकर कविवर पण्डित बनारसीदासजी ने इस कलश का जो भावानुवाद किया है, वह इसप्रकार है -
(सवैया इकतीसा)