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बंधाधिकार
३८३ रमणता प्रत्याख्यान है, संवर है, योग है, समाधि है, आत्मध्यान है।
इन गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
आचारादिशब्दश्रुतं ज्ञानस्याश्रयत्वाज्ज्ञानं, जीवादयो नवपदार्था दर्शनस्याश्रयत्वाद्दर्शनं, षड्जीवनिकायश्चारित्रस्याश्रयत्वाच्चारित्रमिति व्यवहारः।
शुद्ध आत्मा ज्ञानाश्रयत्वाज्ज्ञानं, शुद्ध आत्मा दर्शनाश्रयत्वाद्दर्शनं, शुद्ध आत्मा चारित्राश्रयत्वाच्चारित्रमिति निश्चयः।
तत्राचारादीनां ज्ञानाद्याश्रयत्वस्यानैकांतिकत्वाद्व्यवहारनयः प्रतिषेध्यः। निश्चयनयस्तु शुद्धस्यात्मनो ज्ञानाद्याश्रयत्वस्यैकांतिकत्वात्तत्प्रतिषेधकः ।
तथाहि - नाचारादिशब्दश्रुतमेकांतेन ज्ञानस्याश्रयः, तत्सद्भावेऽप्यभव्यानां शुद्धात्माभावेन ज्ञानस्याभावात्; न च जीवादयः पदार्था दर्शनस्याश्रयः, तत्सद्भावेऽप्यभव्यानां शुद्धात्माभावेन दर्शनस्याभावात्; न च षड्जीवनिकाय: चारित्रस्याश्रयः, तत्सद्भावेऽप्यभव्यानां शुद्धात्माभावेन चारित्रस्याभावात्।
शुद्ध आत्मैव ज्ञानस्याश्रयः, आचारादिशब्दश्रुतसद्भावेऽसद्भावे वा तत्सद्भावेनैव ज्ञानस्य सद्भावातः शुद्ध आत्मैव दर्शनस्याश्रयः, जीवादिपदार्थसद्धावेऽसद्धावे वा तत्सद्धावेनैव दर्शनस्य सद्भावात्; शुद्ध आत्मैव चारित्रस्याश्रयः, षड्जीवनिकायसद्भावेऽसद्भावे वा तत्सद्भावेनैव चारित्रस्य सद्भावात्।।२७६-२७७।।
"ज्ञान का आश्रय होने से आचारांगादि शब्दश्रुत (शास्त्र) ज्ञान हैं, दर्शन का आश्रय होने से जीवादि नव पदार्थ दर्शन हैं और चारित्र का आश्रय होने से जीवादि छह निकाय चारित्र हैं - यह व्यवहारनय का कथन है।
ज्ञान का आश्रय होने से शुद्धात्मा ही ज्ञान है, दर्शन का आश्रय होने से शुद्धात्मा ही दर्शन है और चारित्र का आश्रय होने से शुद्धात्मा ही चारित्र है - यह निश्चयनय का कथन है।
इनमें आचारांगादि को ज्ञानादि का आश्रयत्व अनैकान्तिक है, अनैकान्तिक हेत्वाभास है, व्यभिचार नामक दोष से संयुक्त है। इसलिए व्यवहारनय प्रतिषेध्य है, निषेध करने योग्य है और निश्चयनय व्यवहारनय का प्रतिषेधक है; क्योंकि शुद्धात्मा को ज्ञानादि का आश्रयत्व ऐकान्तिक है। तात्पर्य यह है कि शुद्धात्मा को ज्ञानादि के आश्रयत्व में अनैकान्तिक हेत्वाभास नहीं है, व्यभिचार नामक दोष नहीं है; क्योंकि शुद्धात्मा के आश्रय से ज्ञान-दर्शन-चारित्र होते हैं।
अब इसी बात को हेतुपूर्वक विस्तार से समझाते हैं - आचारांगादि शब्दश्रुत (शास्त्र) एकान्त (नियम) से ज्ञान के आश्रय नहीं हैं; क्योंकि शब्दश्रुत के ज्ञान के सद्भाव में भी अभव्यों को शुद्धात्मा के ज्ञान का अभाव होने से सम्यग्ज्ञान का अभाव है। इसीप्रकार जीवादि नवपदार्थ दर्शन के आश्रय नहीं हैं; क्योंकि उनके दर्शन (श्रद्धान) के सद्भाव में भी अभव्यों को शुद्धात्मा के दर्शन का अभाव होने से सम्यग्दर्शन का अभाव है तथा छह प्रकार के जीवनिकाय भी चारित्र के आश्रय नहीं हैं; क्योंकि उनके प्रति करुणाभाव के सद्भाव में भी अभव्यों को शुद्धात्मा के रमण का अभाव होने से सम्यक्चारित्र का अभाव है।
शुद्धात्मा ही ज्ञान का आश्रय है; क्योंकि आचारांगादि शब्दश्रुत के ज्ञान के सद्भाव में या असद्भाव में शुद्धात्मा के ज्ञान के सद्भाव से सम्यग्ज्ञान का सद्भाव है। इसीप्रकार शुद्धात्मा ही दर्शन का आश्रय है; क्योंकि जीवादि नवपदार्थों के श्रद्धान के सद्भाव में या असद्भाव में शुद्धात्मा के दर्शन (श्रद्धान) के सद्भाव से सम्यग्दर्शन का सद्भाव है तथा शुद्धात्मा ही चारित्र