SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पूर्वरंग दर्शनज्ञानचारित्रवत्त्वेनास्याशुद्धत्वमिति चेत् - ववहारेणुवदिस्सदि णाणिस्स चरित्त दंसणं णाणं । ण वि णाणं ण चरित्तं ण दंसणं जाणगो सुद्धो ।।७।। व्यवहारेणोपदिश्यते ज्ञानिनश्चरित्रं दर्शनं ज्ञानम् । नापि ज्ञानं न चरित्रं न दर्शनं ज्ञायकः शुद्धः ।।७।। आस्तां तावद्बन्धप्रत्ययात् ज्ञायकस्याशुद्धत्वं, दर्शनज्ञानचारित्राण्येव न विद्यन्ते । यतो हनन्तधर्मण्येकस्मिन् धर्मिण्यनिष्णातस्यांतेवासिजनस्य तदवबोधविधायिभिः कैश्चिद्धमैस्तमनुशासतां सूरिणां धर्मधर्मिणोः स्वभावतोऽभेदेऽपि व्यपदेशतो भेदमुत्पाद्य व्यवहारमात्रेणैव ज्ञानिनो दर्शनं ज्ञानं चारित्रमित्युपदेशः । परमार्थतस्त्वेकद्रव्यनिष्पीतानन्तपर्यायतयैकं किंचिन्मिलितास्वादमभेदमेकस्वभावमनुभवतो न दर्शनं न ज्ञानं न चारित्रं, ज्ञायक एवैकः शुद्धः ।।७।। इसी प्रश्न के उत्तर में सातवीं गाथा का उद्भव हुआ है, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत) दृग ज्ञान चारित जीव के हैं - यह कहा व्यवहार ना ज्ञान दर्शन चरण ज्ञायक शुद्ध है परमार्थ से ।।७।। ज्ञानी (आत्मा) के ज्ञान, दर्शन और चारित्र - ये तीन भाव व्यवहार से कहे जाते हैं; निश्चय से ज्ञान भी नहीं है, दर्शन भी नहीं है और चारित्र भी नहीं है; ज्ञानी (आत्मा) तो एक शुद्ध ज्ञायक ही है। इस गाथा का भाव आत्मख्याति में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "इस ज्ञायकभाव के बंधपर्याय के निमित्त से अशुद्धता होती है - यह बात तो दूर ही रहो, इसके तो दर्शन-ज्ञान-चारित्र भी नहीं हैं; क्योंकि अनन्त धर्मोंवाले एक धर्मी में जो निष्णात नहीं हैं - ऐसे निकटवर्ती शिष्यों को, धर्मी को बतानेवाले कितने ही धर्मों के द्वारा उपदेश करते हुए आचार्यों का; यद्यपि धर्म और धर्मी का स्वभाव से अभेद है, तथापि नाम से भेद करके, व्यवहारमात्र से ही ऐसा उपदेश है कि ज्ञानी के दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है; किन्तु परमार्थ से देखा जाये तो अनन्त पर्यायों को एक द्रव्य पी गया होने से, जो एक है - ऐसे कुछ मिले हुए आस्वादवाले, अभेद, एकस्वभावी तत्त्व का अनुभव करनेवाले को दर्शन भी नहीं है, ज्ञान भी नहीं है और चारित्र भी नहीं है; एक शुद्ध ज्ञायक ही है।" 'आत्मा में ज्ञान-दर्शन-चारित्र गुण नहीं हैं - यह बात नहीं है; क्योंकि आत्मा तो ज्ञानादि अनन्तगुणों का अखण्डपिण्ड ही है और ज्ञानादि गुणों के अखण्डपिण्डरूप आत्मा को ही ज्ञायकभाव कहते हैं। छठवीं गाथा में ज्ञायकभाव को उपासित होता हुआ शुद्ध कहा था, अनुभूति में आता हुआ शुद्ध कहा था और अनुभूति निर्विकल्पदशा में ही होती है । गुणों के विस्तार में जाने से, भेदों में जाने से विकल्पों की उत्पत्ति होती है; इसकारण अनुभूति के विषयभूत ज्ञायकभाव में गुणभेद का निषेध किया गया है। गुणभेद अनुपचरित-सद्भूतव्यवहारनय का विषय है और ज्ञायकभाव व्यवहारातीत है; इसकारण
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy