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समयसार इस गाथा में दृष्टि के विषय को स्पष्ट किया जा रहा है। तात्पर्य यह है कि जिस आत्मा में अपनापन स्थापित करने का नाम सम्यग्दर्शन है, जिस आत्मा का ध्यान करने से केवलज्ञान की प्राप्ति होती है और जिस आत्मा के जानने का नाम परमशुद्धनिश्चयनय है तथा जो आत्मा परमपारिणामिकभावरूप है; उस भगवान आत्मा का स्वरूप ही यहाँ स्पष्ट किया जा रहा है।
उसी भगवान आत्मा को इस गाथा में ज्ञायकभाव नाम से संबोधित किया गया है।
परमपारिणामिकभावरूप होने पर भी यहाँ उसे पारिणामिकभाव न कहकर ज्ञायकभाव ही कहा है: क्योंकि पारिणामिकभाव तो सभी द्रव्यों में समानरूप से पाया जाता है, पर ज्ञायकभाव आत्मा का असाधारण भाव है।
यह ज्ञायकभाव वही है, जिसे पिछली गाथाओं में एकत्व-विभक्त भगवान आत्मा कहा गया है। अब यहाँ यह कहा जा रहा है कि वह एकत्व-विभक्त ज्ञायकभाव प्रमत्त भी नहीं है और अप्रमत्त भी नहीं है; वह तो प्रमत्त और अप्रमत्त से परे गुणस्थानातीत है।
यह उस ज्ञायकभावरूप द्रव्यस्वभाव की बात है, जो अनादि-अनन्त. नित्य उद्योतरूप है। यह स्वयंसिद्ध है, किसी से उत्पन्न नहीं हुआ है, अत: अनादि सत्तास्वरूप है; इसका कभी नाश नहीं होगा, अत: अनन्त है; क्षण-क्षण में विनाश को प्राप्त नहीं होता, इसलिए नित्य उद्योतरूप है; और ज्ञानियों के नित्य अनुभव में आता है, गुप्त नहीं है, प्रगट है; अत: प्रकाशमानज्योति है। __ऐसा यह भगवान आत्मा मैं स्वयं ही हूँ। यह किसी अन्य की बात नहीं है, अपने ही आत्मा की बात है, अपने ही आत्मस्वभाव की बात है। प्रमत्त और अप्रमत्त दशाओं से पार यह त्रिकाली ध्रुव ज्ञायकभाव मैं ही हूँ; इसमें ही अपनापन स्थापित होने का नाम सम्यग्दर्शन है; अत: यही दृष्टि का विषय है, यही ध्यान का ध्येय है, इसमें ही लीन होने का नाम ध्यान है; इसमें ही लगातार अन्तर्मुहूर्त तक लीन रहने से केवलज्ञान और अनन्त अतीन्द्रिय आनन्द की प्राप्ति होती है। मुक्तिमार्ग का मूल आधार यही ज्ञायकभाव है; अत: यही एकमात्र परम-उपादेय है।
यह अपरिणामी ज्ञायकभाव अन्य द्रव्यों और उनके भावों से भिन्न उपासित होता हुआ शुद्ध कहलाता है।
पर-पदार्थों और उनके भावों से भिन्न होने के कारण यद्यपि यह ज्ञायकभाव सदा शुद्ध ही है; तथापि जबतक यह ज्ञायकभाव अपने श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र का विषय नहीं बनता, अनुभूति में नहीं आता; तबतक उसके शुद्ध होने का लाभ पर्याय में प्राप्त नहीं होता, आत्मा में अतीन्द्रिय आनन्द की कणिका नहीं जगती, मिथ्यात्व ग्रन्थि का भेद नहीं होता। अत: यह कहा गया है कि वह परभावों से भिन्न उपासित होता हुआ शुद्ध कहलाता है। __ अगली गाथा में आचार्यदेव ज्ञान-दर्शन-चारित्र गुणों के भेद को भी व्यवहारोत्पादक होने से अशुद्धि बताकर निषेध करनेवाले हैं; क्योंकि अनुभव के काल में गुणभेद भी नजर नहीं आता। अनुभव के काल में ज्ञायकभाव जैसा नजर आता है, परमशुद्धनिश्चयनय का विषयभूत वही ज्ञायक भाव शुद्ध कहलाता है - यह स्पष्ट करना भी उक्त कथन का मूल प्रयोजन है।
अब यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि पर के साथ का ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध भी जब व्यवहार होने से अशुद्धि का जनक है; तब तो विकल्पोत्पादक गुणभेद भी व्यवहार होने से अशुद्धि का ही जनक होगा। ऐसी स्थिति में आत्मा में ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है - ऐसा कहना भी असत्यार्थ होगा?