________________
समयसार त्रिकाली ध्रुव ज्ञायकभाव में गुणभेद का निषेध किया गया है। छठवीं गाथा में प्रमत्त-अप्रमत्त पर्यायों के निषेध द्वारा उपचरित-सद्भूतव्यवहारनय का निषेध किया गया था। इसप्रकार अब उपचरित और अनुपचरित दोनों ही सद्भूतव्यवहारनयों का निषेध हो गया है।
उपचरित और अनुपचरित-असद्भूतव्यवहारनयों का निषेध तो तीसरी गाथा की टीका में ही कर आये हैं और ‘परद्रव्यों से भिन्न उपासित होता हुआ' - कहकर छठवीं गाथा की टीका में भी कर दिया है। छठवीं व सातवीं गाथा में उपचरित-सद्भूतव्यवहारनय एवं अनुपचरितसद्भूतव्यवहारनय का भी निषेध कर दिया गया है। इसप्रकार चारों ही प्रकार के व्यवहारनयों का निषेध हो गया है। __इसप्रकार पर से भिन्न, प्रमत्त-अप्रमत्त पर्यायों से भिन्न एवं गुणभेद से भी भिन्न ज्ञायकभाव अनुभूति में आता हुआ शुद्ध कहलाता है। त्रिकाली ध्रुव ज्ञायकभाव की शुद्धता का वास्तविक स्वरूप यही है और यही शुद्धस्वभाव दृष्टि का विषय है, ध्यान का ध्येय है और परमशुद्धनिश्चयनय का विषयभूत परमपदार्थ है तथा परमभावग्राही द्रव्यार्थिकनय का विषयभूत परमपारिणामिकभाव है; इसे ही यहाँ शुद्ध ज्ञायकभाव शब्द से अभिहित किया गया है। __ जिसप्रकार दाहक, पाचक और प्रकाशक - इन गुणों के कारण अग्नि को भी दाहक, पाचक
और प्रकाशक कहा जाता है; पर मूलत: अग्नि तीन प्रकार की नहीं, वह तो एक प्रकार की ही है, एक ही है। उसीप्रकार ज्ञान, दर्शन और चारित्र गुणों के कारण आत्मा को भी ज्ञान, दर्शन और चारित्र कहा जाये; पर इसकारण आत्मा तीन प्रकार का तो नहीं हो जाता; आत्मा तो एक प्रकार का ही रहता है, एक ही रहता है।
लोक में कर्मोदय से होनेवाले रागादिभावों को आत्मा की अशुद्धि माना जाता है; व्यवहारनय की प्ररूपणा से जिनवाणी में भी इसप्रकार का प्ररूपण प्राप्त होता है; पर यहाँ तो दर्शन, ज्ञान, चारित्र के भेद को भी अशुद्धि कहा जा रहा है; तब फिर रागादिरूप अशुद्धि की क्या बात करें ?
तात्पर्य यह है कि जब दृष्टि के विषय में विकल्पोत्पादक होने से गुणभेद को भी शामिल नहीं किया जाता है तो रागादिरूप प्रमत्त पर्यायों को शामिल करने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता। __ अनुभव में तो जो एक अभेद अखण्ड नित्य ज्ञायकभाव दिखाई देता है; वही दृष्टि का विषय है, उसके आश्रय से ही सम्यग्दर्शन प्रगट होता है, उसी में अपनापन स्थापित होने का नाम सम्यग्दर्शन है, एकमात्र वही ध्यान का ध्येय है; अधिक क्या कहें - मुक्ति के मार्ग का मूल आधार वही ज्ञायकभावरूप भगवान आत्मा है।
'वह भगवान आत्मा अन्य कोई नहीं, स्वयं मैं ही हूँ' - ऐसी दृढ़-आस्था, स्वानुभवपूर्वक दृढ़प्रतीति, तीव्ररुचि ही वास्तविक धर्म है, सच्चा मुक्ति का मार्ग है। इस ज्ञायकभाव में अपनापन स्थापित करना ही आत्मार्थी मुमुक्षु भाइयों का एकमात्र कर्तव्य है।
परमशुद्धनिश्चयनय के विषयभूत, व्यवहारातीत, परमशुद्ध, निज निरंजन नाथ ज्ञायकभाव का स्वरूप स्पष्ट करना ही समयसार का मूल प्रतिपाद्य है और इसी शुद्ध ज्ञायकभाव का स्वरूप इन छठवीं-सातवीं गाथाओं में बताया गया है। अत: ये गाथायें समयसार की आधारभूत गाथायें हैं।
यदि चारों ही प्रकार के व्यवहारनय हेय हैं, निषेध करने योग्य हैं; तो फिर एक निश्चय का