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________________ ३७४ समयसार ___ यदि यह है तो सबकुछ है और यदि यह नहीं है तो कुछ भी नहीं है। इसके बिना बाह्य में कितना ही क्रियाकाण्ड क्यों न हो, कैसे भी शुभभाव क्यों न हों, बाह्याचरण भी कितना ही निर्मल क्यों न हो; यह सब मिलकर भी सच्चा मुनिपना नहीं है। एदाणि णत्थि जेसिं अज्झवसाणाणि एवमादीणि। ते असुहेण सुहेण व कम्मेण मुणी ण लिप्पंति ।।२७०।। एतानि न संति येषामध्यवसानान्येवमादीनि । ते अशुभेन शुभेन वा कर्मणा मनयो न लिप्यंते ।।२७०।। एतानि किल यानि त्रिविधान्यध्यवसानानि तानि समस्तान्यपि शुभाशुभकर्मबंधनिमित्तानि, स्वयमज्ञानादिरूपत्वात्।। तथा हि - यदिदं हिनस्मीत्याद्यध्यवसानं तत, ज्ञानमयत्वेनात्मनः सदहेतुकज्ञप्त्येकक्रियस्य रागद्वेषविपाकमयीनां हननादिक्रियाणां च विशेषाज्ञानेन विवक्तात्माज्ञानात्, अस्ति तावदज्ञानं, विविक्तात्मादर्शनादस्ति च मिथ्यादर्शनं, विविक्तात्मानाचरणादस्ति चाचारित्रम्। (यत्पुन: नारकोऽहमित्याद्यध्यवसानं तदपि ज्ञानमयत्वेनात्मनः सदहेतुकज्ञायकैभावस्य कर्मोदयजनितानां नारकादिभावानां च विशेषाज्ञानेन विविक्तात्माज्ञानादस्ति तावदज्ञानं, विविक्तात्मादर्शनादस्ति च मिथ्यादर्शनं, विविक्तात्मानाचरणादस्ति चाचारित्रम् ।) जो बात विगत कलश में कही गई है, अब उसी बात को गाथा के माध्यम से कहते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) ये और इनसे अन्य अध्यवसान जिनके हैं नहीं। वे मुनीजन शुभ-अशुभ कर्मों से न कबहूँ लिप्त हों ।।२७०।। ये अध्यवसानभाव व इसप्रकार के अन्य अध्यवसानभाव जिनके नहीं हैं; वे मुनिराज अशुभ या शुभ कर्मों से लिप्त नहीं होते। इस गाथा का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - "ये जो तीन प्रकार के अध्यवसान हैं, वे सभी स्वयं अज्ञानादिरूप (अज्ञान, मिथ्यादर्शन और अचारित्ररूप) होने से शुभाशुभ कर्मबंध के निमित्त हैं। __अब इसे ही यहाँ विस्तार से समझाते हैं - "मैं परजीवों को मारता हूँ' इत्यादि जो अध्यवसान है; उस अध्यवसानवाले जीव को ज्ञानमयपने के सद्भाव से सत्रूप अहेतुक ज्ञप्ति ही जिसकी क्रिया है - ऐसे आत्मा का और राग-द्वेष के उदयमयी हनन आदि क्रियाओं का अन्तर नहीं जानने के कारण पर से भिन्न आत्मा का अज्ञान होने से वह अध्यवसान प्रथम तो अज्ञान है, भिन्न आत्मा का अदर्शन (अश्रद्धान) होने से वह अध्यवसान मिथ्यादर्शन है और भिन्न आत्मा का अनाचरण होने से वह अध्यवसान ही अचारित्र है। 'मैं नारक हूँ' इत्यादि जो अध्यवसान है, वह अध्यवसानवाले जीव को भी ज्ञानमयपने के सद्भाव से सत्रूप अहेतुक ज्ञायक ही जिसका एक भाव है - ऐसा आत्मा का और कर्मोदयजनित
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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