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बंधाधिकार अध्यवसान से अपने को अलोकाकाशरूप करता है।
इसप्रकार आत्मा अध्यवसान से अपने को सर्वरूप करता है।" इस टीका के पहले ही वाक्य में आचार्यदेव लिखते हैं कि अज्ञानी क्रिया जिसका गर्भ है - ऐसे
(इन्द्रवज्रा) विश्वाद्विभक्तोऽपि हि यत्प्रभावादात्मानमात्मा विदधाति विश्वम् ।
मोहैककंदोऽध्यवसाय एष नास्तीह येषां यतयस्त एव ।।१७२।। हिंसा के अध्यवसान से अपने को हिंसक करता है। इसका तात्पर्य यह है कि जो हिंसा का
अध्यवसान अज्ञानी को हो रहा है, उसके भीतर किसी को मारने की क्रिया करने का अभिप्राय विद्यमान है। उस अभिप्रायपूर्वक जो हिंसादि के भाव होते हैं, वे अज्ञानी के पर के प्रति एकत्व, ममत्व, कर्तृत्व और भोक्तृत्व की मान्यतारूप ही हैं। __जिसप्रकार यहाँ हिंसा के अध्यवसान से जीव अपने को हिंसक करता है; उसीप्रकार नरकादि गतिकर्म के उदय में होनेवाली नरकादि पर्यायों, पुण्य-पाप के भावों और जानने में आनेवाले धर्मादि द्रव्यों में भी अज्ञानी एकत्व, ममत्व, कर्तृत्व और भोक्तृत्व स्थापित करता है।
इसी बात को यहाँ इस भाषा में व्यक्त किया गया है कि अज्ञानी स्वयं को सर्वरूप करता है।
इसकी यह स्वयं को सर्वरूप करने की वृत्ति ही मिथ्यात्व है, महापाप है, अनन्त संसार का कारण है और तदनुसार प्रवृत्ति मिथ्याचारित्र है। उक्त वृत्ति मिथ्यादर्शन है और तदनुसार प्रवृत्ति मिथ्याचारित्र है।
अब इसी भाव का पोषक एवं आगामी गाथाओं का सूचक कलश काव्य कहते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है
(रोला) यद्यपि चेतन पूर्ण विश्व से भिन्न सदा है,
फिर भी निज को करे विश्वमय जिसके कारण। मोहमूल वह अधवसाय ही जिसके ना हो,
परमप्रतापी दृष्टिवंत वे ही मुनिवर हैं।।१७२।। विश्व से अर्थात् समस्त द्रव्यों से भिन्न होने पर भी यह आत्मा जिसके प्रभाव से स्वयं को विश्वरूप करता है; ऐसा वह अध्यवसाय कि जिसका मूल मोह (मिथ्यात्व) है; वह जिनके नहीं है, वे ही मुनिराज हैं।
इसप्रकार इस कलश में यही कहा गया है कि जिन मनिराजों के परपदार्थों और विकारीभावों में एकत्व-ममत्व व कर्तृत्व-भोक्तृत्व बुद्धि न हो और जो अपने स्वरूप में स्थिर रहते हों; वे मुनिराज ही सच्चे मुनिराज हैं। ____ मुनिधर्म का मूल परपदार्थों और विकारीभावों में से एकत्व-ममत्व टूटकर, कर्तृत्व-भोक्तृत्व छूटकर त्रिकाली ध्रुव निज भगवान आत्मा में एकत्व-ममत्व होना और निज भगवान आत्मा में जम जाना, रम जाना है।