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समयसार
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अर पुण्य एवं पाप सब पर्यायमय निज को करे ।।२६८।। वह जीव और अजीव एवं धर्म और अधर्ममय। अर लोक और अलोक इन सबमय स्वयं निज को करे।।२६९।। सर्वान् करोति जीवोऽध्यवसानेन तिर्यनैरयिकान् । देवमनुजांश्च सर्वान् पुण्यं पापं च नैकविधम् ।।२६८।। धर्माधर्मं च तथा जीवाजीवौ अलोकलोकं च ।
सर्वान् करोति जीव: अध्यवसानेन आत्मानम् ।।२६९।। यथायमेवं क्रियागर्भहिंसाध्यवसानेन हिंसकं, इतराध्यवसानैरितरं च आत्मात्मानं कुर्यात्, तथा विपच्यमाननारकाध्यवसानेन नारकं, विपच्यमानतिर्यगध्यवसानेन तिर्यंचं, विपच्यमानमनुष्याध्यवसानेन मनुष्यं, विपच्यमानदेवाध्यवसानेन देवं, विपच्यमानसुखादिपुण्याध्यवसानेन पुण्यं, विपच्यमानदुःखादिपापाध्यवसानेन पापमात्मानं कुर्यात् ।
तथैव च ज्ञायमानधर्माध्यवसानेन धर्म, ज्ञायमानाधर्माध्यवसानेनाधर्म, ज्ञायमानजीवान्तराध्यवसानेन जीवान्तरं, ज्ञायमानपुद्गलाध्यवसानेन पुद्गलं, ज्ञायमानलोकाकाशाध्यवसानेन लोकाकाशं, ज्ञायमानालोकाकाशाध्यवसानेनालोकाकाशमात्मानं कुर्यात् ।।२६८-२६९।।
यह जीव अध्यवसान से तिर्यंच, नारक, देव, मनुष्य - इन सब पर्यायों और अनेकप्रकार के पुण्य-पाप भावों रूप स्वयं को करता है।
इसीप्रकार यह जीव अध्यवसान से धर्म-अधर्म, जीव-अजीव और लोक-अलोक - इन सबरूप भी स्वयं को करता है।
तात्पर्य यह है कि उक्त सभी नारकादि पर्यायों, पुण्य-पापादि भावों और जीव-अजीव द्रव्यों में यह जीव एकत्व-ममत्व स्थापित करता है, उनका कर्ता-भोक्ता भी बनता है।
आत्मख्याति में इन गाथाओं का भाव इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
"जिसप्रकार यह आत्मा क्रिया जिसका गर्भ है - ऐसे हिंसा के अध्यवसान से अपने को हिंसक करता है और अन्य अध्यवसानों से अपने को अन्य करता है; उसीप्रकार उदय में आते हुए नारक के अध्यवसान से अपने को नारक करता है, उदय में आते हुए तिर्यंच के अध्यवसान से अपने को तिर्यंच करता है, उदय में आते हुए मनुष्य के अध्यवसान से अपने को मनुष्य करता है, उदय में आते हुए देव के अध्यवसान से अपने को देव करता है, उदय में आते हुए सुख आदि पुण्य के अध्यवसान से अपने को पुण्यरूप करता है और उदय में आते हुए दुःख आदि पाप के अध्यवसान से अपने को पापरूप करता है।
इसीप्रकार जानने में आते हुए धर्मास्तिकाय के अध्यवसान से अपने को धर्मरूप करता है, जानने में आते हुए अधर्मास्तिकाय के अध्यवसान से अपने को अधर्मरूप करता है, जानने में आते हुए अन्य जीवों के अध्यवसानों से अपने को अन्य जीवरूप करता है, जानने में आते हुए पुद्गल के अध्यवसानों से अपने को पुद्गलरूप करता है, जानने में आते हुए लोकाकाश के अध्यवसान से अपने को लोकाकाशरूप करता है और जानने में आते हुए अलोकाकाश के