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बंधाधिकार
३७५ नारक आदि भावों का अन्तर न जानने के कारण भिन्न आत्मा का अज्ञान होने से, वह अध्यवसान प्रथम तो अज्ञान है, भिन्न आत्मा का अदर्शन होने से वह अध्यवसान मिथ्यादर्शन है और भिन्न आत्मा का अनाचरण होने से वह अध्यवसान ही अचारित्र है। ___ यत्पुनरेष धर्मो ज्ञायत इत्याद्यध्यवसानं तदपि, ज्ञानमयत्वेनात्मनः सदहेतुकज्ञानैकरूपस्य ज्ञेयमयानां धर्मादिरूपाणां च विशेषाज्ञानेन विविक्तात्माज्ञानात्, अस्ति तावदज्ञानं, विविक्तात्मादर्शनादस्ति च मिथ्यादर्शनं, विविक्तात्मानाचरणादस्ति चाचारित्रम् । ततो बंधनिमित्तान्येवैतानि समस्तान्यध्यवसानानि।
येषामेवैतानि च विद्यते त एव मुनिकुजरा: केचन, सदहेतुकज्ञप्त्येकक्रिय, सदहेतुकज्ञायकेकभाव, सदहेतुकज्ञानरूपंच विविक्तमात्मानं जानंतः, सम्यक्पश्यंतोऽनुचरंतश्च, स्वच्छस्वच्छंदोद्यदमंदांतयोतिषोऽत्यंतमज्ञानादिरूपत्वाभावात्, शुभेनाशुभेन वा कर्मणा न खलु लिप्येरम् ।।२७०।।
'धर्मद्रव्य का ज्ञान होता है' इत्यादि जो अध्यवसान हैं, उन अध्यवसानवाले जीव को भी ज्ञानमयपने के सद्भाव से सत्रूप अहेतुक ज्ञान ही जिसका एक रूप है - ऐसे आत्मा का और ज्ञेयमय धर्मादिकरूपों का अन्तर न जानने के कारण भिन्न आत्मा का अज्ञान होने से वह अध्यवसान प्रथम तो अज्ञान है, भिन्न आत्मा का अदर्शन होने से वह अध्यवसान मिथ्यादर्शन है और भिन्न आत्मा का अनाचरण होने से वह अध्यवसान ही अचारित्र है। इसलिए ये समस्त अध्यवसान बंध के ही निमित्त हैं।
मात्र जिनके ये अध्यवसान विद्यमान नहीं हैं, वे ही कोई विरले मुनिकुंजर सत्रूप अहेतुक ज्ञप्ति ही जिसकी एक क्रिया है, सत्रूप अहेतुक ज्ञायक ही जिसका एक भाव है और सत्रूप अहेतुक ज्ञान ही जिसका एक रूप है - ऐसे भिन्न आत्मा को जानते हुए, सम्यक् प्रकार देखते हुए और आचरण करते हुए स्वच्छ और स्वच्छन्दतया उदयमान - ऐसी अमन्द अन्तर्योति को अज्ञानादिरूपता का अत्यन्त अभाव होने से शुभ या अशुभ कर्म से वास्तव में लिप्त नहीं होते।"
इसप्रकार इस गाथा में यही कहा गया है कि मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्ररूप अध्यवसान ही बंध के कारण हैं।
इसके बाद आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति टीका में एक गाथा आती है, जो आत्मख्याति में नहीं है। वह गाथा इसप्रकार है -
जा संकप्पवियप्पो ता कम्मंकणदि असहसहजणय । अप्पसरूवा रिद्धी जाव ण हियए परिफ्फुरई ।।
(हरिगीत) इस आतमा में जबतलक संकल्प और विकल्प हैं।
तबतलक अनुभूति ना तबतक शुभाशुभ कर्म हों ।। जबतक संकल्प-विकल्प हैं, तबतक आत्मस्वभावमय ऋद्धि अर्थात् स्वानुभूति हृदय में प्रगट नहीं होती और जबतक स्वानुभूति प्रगट नहीं होती; तबतक वह जीव शुभ-अशुभ कर्म करता है।