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समयसार रखने-परिग्रह न रखने के संदर्भ में समझ लेना चाहिए।
इसप्रकार इन गाथाओं में यही कहा गया है कि पुण्यबंध और पापबंध - दोनों ही प्रकार के बंधों का कारण तो एकमात्र अध्यवसानभाव ही है। न च बाह्यवस्तु द्वितीयोऽपि बन्धहेतुरिति शंक्यम् -
वत्थु पडुच्च जं पुण अज्झवसाणं तु होदि जीवाणं। ण य वत्थुदो दु बंधो अज्झवसाणेण बंधोत्थि ।।२६५।।
वस्तु प्रतीत्य यत्पुनरध्यवसानं तु भवति जीवानाम् ।
न च वस्तुतस्तु बन्धोऽध्यवसानेन बन्धोऽस्ति ।।२६५।। अध्यवसानमेव बन्धहेतुः न तु बाह्यवस्तु, तस्य बन्धहेतोरध्यवसानस्य हेतुत्वेनैव चरितार्थत्वात् । तर्हि किमर्थो बाह्यवस्तुप्रतिषेधः ? अध्यवसानप्रतिषेधार्थः। अध्यवसानस्य हि बाह्यवस्तु आश्रयभूतं; न हि बाह्यवस्त्वनाश्रित्य अध्यवसानमात्मानं लभते। ___ यदि बाह्यवस्त्वनाश्रित्यापि अध्यवसानं जायेत, तदा यथा वीरसूसुतस्याश्रयभूतस्य सद्भावे वीरसुतं हिनस्मीत्यध्यवसायोजायते,तथा वंध्यासुतस्याश्रयभूतस्यासद्भावेऽपिवंध्यासुतं हिनस्मीत्यध्यवसायो जायेत । न च जायते । ततो निराश्रयं नास्त्यध्यवसानमिति नियमः।
तत एव चाध्यवसानाश्रयभूतस्य बाह्यवस्तुनोऽत्यंतप्रतिषेधः, हेतुप्रतिषेधेनैव हेतुमत्प्रतिषेधात् ।
यद्यपि यह बात विगत गाथाओं से स्पष्ट हो गई है कि बंध का कारण अध्यवसानभाव ही है; तथापि कुछ लोगों के हृदय में यह विकल्प बना ही रहता है कि अध्यवसान के अतिरिक्त बंध का कारण कोई बाह्यवस्तु भी होना चाहिए।
अज्ञानियों के इस विकल्प को दूर करने के लिए ही २६५वीं गाथा लिखी गई है। जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
( हरिगीत) ये भाव अध्यवसान होते वस्तु के अवलम्ब से।
पर वस्तु से ना बंध हो हो बंध अध्यवसान से ।।२६५।। जीवों के जो अध्यवसान होते हैं; वे वस्तु के अवलम्बनपूर्वक ही होते हैं; तथापि वस्तु से बंध नहीं होता, अध्यवसान से ही बंध होता है।
उक्त गाथा का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
“अध्यवसान ही बंध का कारण है, बाह्यवस्तु नहीं; क्योंकि बंध के कारणभूत अध्यवसानों से ही बाह्यवस्तु की चलितार्थता है। तात्पर्य यह है कि बंध के कारणभूत अध्यवसान का कारण होने में ही बाह्यवस्तु का कार्यक्षेत्र पूरा हो जाता है, वह वस्तु बंध का कारण नहीं होती।
प्रश्न - यदि बाह्यवस्तु बंध का कारण नहीं है तो बाह्यवस्तु के त्याग का उपदेश किसलिए दिया जाता है ?