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बंधाधिकार
३६५ संक्षिप्त सार यही है।
बंध के संदर्भ में जो बात २६२वीं गाथा में हिंसा के बारे में कही गई है, वही बात अब इन गाथाओं में असत्यादि के बारे में कहते हैं। अथाध्यवसायं पापपुण्ययोर्बंधहेतुत्वेन दर्शयति -
एवमलिए अदत्ते अबंभचेरे परिग्गहे चेव। कीरदि अज्झवसाणं जं तेण दु बज्झदे पावं ।।२६३।। तह वि य सच्चे दत्ते बंभे अपरिग्गहत्तणे चेव । कीरदि अज्झवसाणं जं तेण दु बज्झदे पुण्णं ।।२६४।।
एवमलीकेऽदत्तेऽब्रह्मचर्ये परिग्रहे चैव। क्रियतेऽध्यवसानं यत्तेन तु बध्यते पापम् ।।२६३।। तथापि च सत्ये दत्ते ब्रह्मणि अपरिग्रहत्वे चैव।
क्रियतेऽध्यवसानं यत्तेन तु बध्यते पुण्यम् ।।२६४।। एवमयमज्ञानात् यो यथा हिंसायां विधीयतेऽध्यवसायः, तथा असत्यादत्ताब्रह्मपरिग्रहेषु यश्च विधीयते स सर्वोऽपि केवल एव पापबन्धहेतुः । यस्तु अहिंसायां यथा विधीयते अध्यवसाय:, तथा यश्च सत्यदत्तब्रह्मापरिग्रहेषु विधीयते स सर्वोऽपि केवल एव पुण्यबंधहेतुः ।।२६३-२६४।। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) इस ही तरह चोरी असत्य कुशील एवं ग्रंथ में। जो हुए अध्यवसान हों वे पाप का बंधन करें।।२६३।। इस ही तरह अचौर्य सत्य सुशील और अग्रंथ में।
जो हुए अध्यवसान हों वे पुण्य का बंधन करें ।।२६४।। जिसप्रकार हिंसा-अहिंसा के संदर्भ में कहा गया है; उसीप्रकार असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह के संदर्भ में जो अध्यवसान किये जाते हैं; उनसे पाप का बंध होता है और सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के संदर्भ में जो अध्यवसान किये जाते हैं; उनसे पुण्य का बंध होता है।
उक्त गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार व्यक्त किया गया है -
"जिसप्रकार अज्ञान से हिंसा के संदर्भ में अध्यवसाय किया जाता है; उसीप्रकार असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह के संदर्भ में भी जो अध्यवसाय किये जाते हैं; वे सब पापबंध के एकमात्र कारण हैं और जिसप्रकार अज्ञान से अहिंसा के संदर्भ में अध्यवसाय किया जाता है; उसीप्रकार सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के संदर्भ में अध्यवसान किया जाता है; वह सब पुण्यबंध का एकमात्र कारण है।"
जो बातें २६२वीं गाथा में मारने-बचाने के संदर्भ में कही गई हैं; वे सभी यहाँ इन गाथाओं में सत्य बोलने-असत्य बोलने, चोरी करने-चोरी न करने, शील पालने-शील न पालने और परिग्रह