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समयसार उत्थानिका भी; क्योंकि आगामी गाथा में तो साफ-साफ ही कह रहे हैं कि जीव मरे चाहे न मरे, बंध तो अध्यवसानों से ही होता है।
एवं हि हिंसाध्यवसाय एव हिंसेत्यायाताम् ।
अज्झवसिदेण बंधो सत्ते मारेउ मा व मारेउ। एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयणयस्स ।।२६२।।
अध्यवसितेन बंधः सत्त्वान् मारयतु मा वा मारयतु।
एष बंधसमासो जीवानां निश्चयनयस्य ।।२६२।। परजीवानां स्वकर्मोदयवैचित्र्यवशेन प्राणव्यपरोप: कदाचिद्भवतु, कदाचिन्मा भवतु, य एव हिनस्मीत्यहंकाररसनिर्भरो हिंसायामध्यवसायःस एव निश्चयतस्तस्य बंधहेतुः, निश्चयेन परभावस्य प्राणव्यपरोपस्य परेण कर्तुमशक्यत्वात् ।।२६२।।
(हरिगीत ) मारो न मारो जीव को हो बंध अध्यवसान से।
यह बंध का संक्षेप है तुम जान लो परमार्थ से ।।२६२।। जीवों को मारो अथवा न मारो; कर्मबंध तो अध्यवसान से ही होता है - यह निश्चय से जीवों के बंध का संक्षेप है। इस गाथा के भाव को आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
"अपने कर्मों की विचित्रता के वश से परजीवों के प्राणों का व्यपरोपण (उच्छेद-वियोग) कदाचित् हो, कदाचित् न भी हो; तो भी 'मैं मारता हूँ' - ऐसा अहंकाररस से भरा हुआ हिंसा का अध्यवसाय ही निश्चय से उसके बंध का कारण है; क्योंकि निश्चय से पर के प्राणों का व्यपरोपणरूप परभाव किसी अन्य के द्वारा किया जाना शक्य नहीं है।"
यहाँ आचार्यदेव अति संक्षेप में यह कहना चाहते हैं कि बंध की संक्षिप्त-सी कहानी मात्र इतनी ही है कि यदि तेरे हृदय (आत्मा) में अध्यवसानभाव उत्पन्न हो गये; 'मैं परजीवों को मार सकता हूँ, बचा सकता हूँ, सुखी-दु:खी कर सकता हूँ' - ऐसी मान्यतापूर्वक मारने-बचाने या सुखी-दुःखी करने के भाव हो गये तो फिर तुझे बंध होगा ही; क्योंकि तेरे बंध का संबंध तेरे अध्यवसानों से ही है, अन्य जीवों के मरने-जीने या सुखी-दु:खी होने से नहीं।
अन्य जीवों का जीवन-मरण और सुख-दुःख तो अनेकप्रकार की विचित्रता को लिये हुए उनके जो पूर्वोपात्त कर्म हैं, उन कर्मों के उदयानुसार उनकी विभिन्नप्रकार की पर्यायगत योग्यता से होते हैं। उनमें तेरे इन विकल्पों का, अध्यवसानभावों का कुछ भी योगदान नहीं है।
यही कारण है कि यहाँ आचार्यदेव डंके की चोट कह रहे हैं कि जीव मरे, चाहे न मरे; सुखीदु:खी हो, चाहे न हो; पर यदि अध्यवसानभाव हैं तो बंध अवश्य होगा। बंध की प्रक्रिया का