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बंधाधिकार
मैं जीवों को मारता हूँ और जिलाता हूँ - ऐसा जो तेरा अध्यवसान है, वही पाप-पुण्य का बंधक है।
परजीवानहं हिनस्मि, न हिनस्मि, दुःखयामि सुखयामि इति य एवायमज्ञानमयोऽध्यवसायो मिथ्यादृष्टेः, स एव स्वयं रागादिरूपत्वात्तस्य शुभाशुभबंधहेतुः ।
अथाध्यवसायं बंधहेतुत्वेनावधारयति - य एवायं मिथ्यादृष्टेरज्ञानजन्मा रागमयोऽध्यवसायः स एव बंधहेतुः इत्यवधारणीयम् । न च पुण्यपापत्वेन द्वित्वाद्बन्धस्य तद्धेत्वंतरमन्वेष्टव्य; एकेनैवानेनाध्यवसायेन दुःखयामि मारयामि इति, सुखयामि जीवयामीति च द्विधा शुभाशुभाहंकाररसनिर्भरतया द्वयोरपि पुण्यपापयोर्बंधहेतुत्वस्याविरोधात् ।। २५९ -२६१ ।।
उक्त गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है।
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“मिथ्यादृष्टि जीव के मैं परजीवों को मारता हूँ, नहीं मारता हूँ, दुःखी करता हूँ, सुखी करता हूँ आदि रूप जो अज्ञानमय अध्यवसाय हैं; वे अध्यवसाय ही रागादिरूप होने से मिथ्यादृष्टि जीव को शुभाशुभबंध के कारण हैं ।
अब अध्यवसाय (अध्यवसान) भाव बंध के हेतु हैं - यह सुनिश्चित करते हैं । मिथ्यादृष्ट जीव के अज्ञान से उत्पन्न होनेवाले रागादिभावरूप अध्यवसाय ही बंध के कारण हैं - यह बात भली-भाँति निश्चित करना चाहिए; इसमें पुण्य-पाप का भेद नहीं खोजना चाहिए।
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तात्पर्य यह है कि पुण्यबंध का कारण कुछ और है और पापबंध का कारण कुछ और है ऐसा भेद करने की कोई आवश्यकता नहीं है; क्योंकि इस एक ही अध्यवसाय के दुःखी करता हूँ, मारता हूँ और सुखी करता हूँ, जिलाता हूँ - इसप्रकार दो प्रकार से शुभ-अशुभ अहंकारर से परिपूर्णता के द्वारा पुण्य और पाप दोनों के बंध के कारण होने में अविरोध है । तात्पर्य यह है कि इस एक अध्यवसाय से ही पाप और पुण्य दोनों के बंध होने में कोई विरोध नहीं है ।"
मे
यद्यपि मारने और दुःखी करने के भाव की अपेक्षा बचाने और सुखी करने का भाव प्रथमदृष्ट कुछ अच्छा प्रतीत होता है; तथापि वस्तुस्वरूप की विपरीतता अर्थात् मिथ्यापना दोनों में समानरूप से विद्यमान है । इसीलिए यहाँ कहा गया है कि इनमें भेद खोजना बुद्धिमानी का काम नहीं। तात्पर्य इतना ही है कि कर्तृत्वबुद्धिपूर्वक पर के आश्रय से उत्पन्न होनेवाले शुभ और अशुभ दोनों ही भाव समानरूप से मिथ्याध्यवसाय हैं और वे ही बंध के कारण हैं ।
इन गाथाओं की टीका के उपरान्त और आगामी गाथा के पूर्व आचार्य अमृतचन्द्र एक वाक्य लिखते हैं; जो इसप्रकार है
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" इसप्रकार वास्तव में हिंसा का अध्यवसाय ही हिंसा है - यह फलित हो गया ।"
उक्त वाक्य को पिछली गाथाओं का उपसंहार भी कह सकते हैं और आगामी गाथा की