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समयसार
३६२ गया है और उन्हें ही बंध का कारण बताया गया है।
अध्यवसाय शब्द का प्रयोग मुख्यरूप से तीन अर्थों में होता है। (१) स्वपर की एकत्वबुद्धिपूर्वक होनेवाले मिथ्या-अभिप्राय के अर्थ में,
एसा दुजा मदी दे दुक्खिदसुहिदे करेमि सत्ते त्ति । एसा दे मूढमदी सुहासुहं बंधदे कम्मं ।।२५९।। दुक्खिदसुहिदे सत्ते करेमि जं एवमज्झवसिदं ते। तं पावबंधगं वा पुण्णस्स व बंधगं होदि ।।२६०।। मारिमि जीवावेमि य सत्ते जं एवमज्झवसिदं ते । तं पावबंधगं वा पुण्णस्स व बंधगं होदि ।।२६१।।
एषा तु या मतिस्ते दुःखितसुखितान् करोमि सत्त्वानिति। एषा ते मूढमति: शुभाशुभं बध्नाति कर्म ।।२५९।। दुःखितसुखितान् सत्त्वान् करोमि यदेवमध्यवसितं ते। तत्पापबंधकं वा पुण्यस्य वा बंधकं भवति ।।२६०।। मारयामि जीवयामि वा सत्त्वान् यदेवमध्यवसितं ते ।
तत्पापबंधकं वा पुण्यस्य वा बंधकं भवति ।।२६१।। (२) सामान्य परिणाम के अर्थ में और (३) निर्मल परिणाम के अर्थ में।
अत: इसका अर्थ प्रकरण के अनुसार ही किया जाना चाहिए, अन्यथा सही भाव ख्याल में नहीं आयेगा। ध्यान रखने की बात यह है कि यहाँ इस प्रकरण में अध्यवसाय शब्द का अर्थ मिथ्याअभिप्राय के अर्थ में ही है।
जो बात विगत कलश में कही गई है, अब उसी बात को आगामी गाथाओं में विस्तार से स्पष्ट करते हैं। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
( हरिगीत ) मैं सुखी करता दुःखी करता हूँ जगत में अन्य को। यह मान्यता ही मूढ़मति शुभ-अशुभ का बंधन करे ।।२५९।। 'मैं सुखी करता दुःखी करता' यही अध्यवसान सब। पुण्य एवं पाप के बंधक कहे हैं सूत्र में ।।२६०।। 'मैं मारता मैं बचाता हूँ' यही अध्यवसान सब।
पाप एवं पुण्य के बंधक कहे हैं सूत्र में ।।२६१।। मैं जीवों को सुखी-दुःखी करता हूँ - यह जो तेरी बुद्धि है, यही मूढ़बुद्धि शुभाशुभकर्म को बाँधती है।
मैं जीवों को सुखी-दुःखी करता हूँ - ऐसा जो तेरा अध्यवसान है, वही पुण्य-पाप का बंधक है।