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________________ बंधाधिकार ३६१ जो ना मरे या दुःखी ना हो सब करम के उदय से। 'ना दुःखी करता मारता' - यह बात क्यों मिथ्या न यो म्रियते यश्च दुःखितो जायते कर्मोदयेन स सर्वः। तस्मात्तु मारितस्ते दुःखितश्चेति न खलु मिथ्या ।।२५७।। योन म्रियतेन च दुःखितः सोऽपिचकर्मोदयेन चैव खलु। तस्मान्न मारितो नो दुःखितश्चेति न खलु मिथ्या ।।२५८।। यो हि म्रियते जीवति वा, दुःखितो भवति सुखितो भवति वा, स खलु स्वकर्मोदयेनैव, तदभावे तस्य तथा भवितुमशक्यत्वात् । तत: मयायं मारितः, अयं जीवितः, अयं दुःखितः कृतः, अयं सुखितः कृतः इति पश्यन् मिथ्यादृष्टिः ।।२५७-२५८॥ (अनुष्टुभो मिथ्यादृष्टेः स एवास्य बंधहेतुर्विपर्ययात् । य एवाध्यवसायोऽयमज्ञानात्माऽस्य दृश्यते ।।१७०।। जो मरता है और जो दुःखी होता है, वह सब कर्मोदय से होता है; इसलिए मैंने मारा, मैंने दुःखी किया' - ऐसा तेरा अभिप्राय क्या वास्तव में मिथ्या नहीं है ? जो मरता नहीं है और दुःखी नहीं होता है, वह सब भी कर्मोदयानुसार ही होता है; इसलिए 'मैंने नहीं मारा, मैंने दुःखी नहीं किया' - ऐसा तेरा अभिप्राय क्या वास्तव में मिथ्या नहीं है ? ___ तात्पर्य यह है कि जब जीवों का जीवन और मरण तथा दु:खी-सुखी होना कर्मोदयानुसार ही होता है तो फिर दूसरों को मारने-बचाने और सुखी-दु:खी करने की मान्यता मिथ्या ही है। इन गाथाओं का भाव आत्मख्याति में अत्यन्त संक्षेप में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - "जो मरता है या जीता है, दुःखी होता है या सुखी होता है; वह वस्तुतः अपने कर्मोदय से ही होता है; क्योंकि अपने कर्मोदय के अभाव में उसका वैसा होना (मरना, जीना, दुःखी या सुखी होना) अशक्य है। इसकारण मैंने इसे मारा, इसे जिलाया या बचाया, इसे दुःखी किया, इसे सुखी किया - ऐसा माननेवाला मिथ्यादृष्टि है।" ___ अब इसी अभिप्राय का पोषक एवं आगामी गाथाओं की सूचना देनेवाला कलशकाव्य लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (दोहा) विविध कर्म बंधन करें, जो मिथ्याध्यवसाय । मिथ्यामति निशदिन करें, वे मिथ्याध्यवसाय ।।१७०।। मिथ्यादृष्टि के जो यह अज्ञानरूप अध्यवसाय दिखाई देता है; वह अध्यवसाय ही विपरीत भावरूप होने से उस मिथ्यादृष्टि के बंध का कारण है। इस कलश में परपदार्थों में एकत्व, ममत्व, कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व भावों को अध्यवसाय कहा
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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