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बंधाधिकार
उत्तर अध्यवसान के निषेध के लिए बाह्यवस्तु का निषेध किया जाता है । बाह्यवस्तु अध्यवसान की आश्रयभूत है; क्योंकि बाह्यवस्तु के आश्रय के बिना अध्यवसान उत्पन्न नहीं होता, अपने स्वरूप को प्राप्त नहीं होता ।
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न च बन्धहेतुहेतुत्वे सत्यपि बाह्यवस्तु बन्धहेतुः स्यात्, ईर्यासमितिपरिणतयतींद्रपदव्यापाद्यमानवेगापतत्कालचोदितकुलिंगवत्, बाह्यवस्तुनो बन्धहेतुहेतोरबन्धहेतुत्वेन बन्धहेतुत्वस्यानैकांतिकत्वात् । अतो न बाह्यवस्तु जीवस्यातद्भावो बन्धहेतुः, अध्यवसानमेव तस्य तद्भावो बन्धहेतुः ।। २६५ ।।
यदि बाह्यवस्तु के आश्रय बिना ही अध्यवसान उत्पन्न तो जिसप्रकार वीरजननी के पुत्र के सद्भाव में ही किसी को ऐसा अध्यवसाय उत्पन्न होता है कि मैं वीरजननी के पुत्र को मारता हूँ; उसीप्रकार आश्रयभूत बंध्यापुत्र के असद्भाव में भी किसी को ऐसा अध्यवसाय उत्पन्न होना चाहिए कि मैं बंध्यापुत्र को मारता हूँ; परन्तु ऐसा अध्यवसाय तो किसी को उत्पन्न होता नहीं है। इसलिए यह नियम है कि बाह्यवस्तुरूप आश्रय के बिना अध्यवसान नहीं होता ।
इसकारण ही अध्यवसान की आश्रयभूत बाह्यवस्तु के त्याग का उपदेश दिया जाता है; क्योंकि कारण के प्रतिषेध से ही कार्य का प्रतिषेध होता है ।
यद्यपि 'बाह्यवस्तु बंध के कारण का कारण है, तथापि वह बंध का कारण नहीं है; क्योंकि ईर्यासमितिपूर्वक गमन करते हुए मुनिराज के पैरों के नीचे कालप्रेरित उड़ते हुए तेजी से पड़नेवाले कीटाणु की भाँति बंध के कारण की कारणरूप बाह्यवस्तु को बंध का कारण मानने में अनेकान्तिक हेत्वाभास होता है, व्यभिचार नामक दोष आता है । इसप्रकार निश्चय से बाह्यवस्तु को बंध का हेतुत्व निर्बाधतया सिद्ध नहीं होता ।
इसलिए अतद्भावरूप बाह्यवस्तु बंध का कारण नहीं है, अपितु तद्भावरूप अध्यवसायभाव ही बंध के कारण हैं।"
वस्तुतः स्थिति ऐसी है कि आत्मा में राग-द्वेष-मोहरूप अध्यवसानभाव जब भी उत्पन्न होते हैं, तब वे किसी न किसी परपदार्थ के लक्ष्य से, आश्रय से उत्पन्न होते हैं । मारने का भाव किसी न किसी प्राणी के लक्ष्य से ही होता है । इसीप्रकार बचाने का भाव भी किसी न किसी के लक्ष्य से ही होता है ।
इस बात को यहाँ वीरजननी के बेटे और बाँझ के बेटे के उदाहरण से समझाया गया है। वीरजननी के बेटे की सत्ता तो लोक में संभव है; किन्तु बाँझ के बेटे की सत्ता लोक में संभव ही नहीं है । यही कारण है कि किसी को वीरजननी के बेटे को मारने का भाव हो सकता है, पर बाँझ के बेटे को मारने का भाव किसी को नहीं होता; क्योंकि जिसकी लोक में सत्ता ही न हो, उसे मारने का भाव कैसे संभव है ?
इसप्रकार पर के आश्रय से अध्यवसान भाव होते हैं। यद्यपि बंध तो एकमात्र अध्यवसानभाव से ही होता है; तथापि जिन परपदार्थों या क्रियाओं के आश्रय से, अवलम्बन से अध्यवसान होते हैं; उन क्रियाओं या पदार्थों के त्याग का उपदेश भी जिनागम में दिया गया है। इसकारण लोगों को यह भ्रम हो जाता है कि ये क्रियायें या परपदार्थ बंध के कारण हैं।