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________________ ३५६ समयसार यो मन्यते हिनस्मि च हिंस्ये च परैः सत्त्वैः । स मूढोऽज्ञानी ज्ञान्यतस्तु विपरीतः ।।२४७।। आयुःक्षयेण मरणं जीवानां जिनवरैः प्रज्ञप्तम् । आयुर्न हरसि त्वं कथं त्वया मरणं कृतं तेषाम् ।।२४८।। आयुःक्षयेण मरणं जीवानां जिनवरैः प्रज्ञप्तम् । आयुर्न हरंति तव कथं ते मरणं कृतं तैः ।।२४९।। यो मन्यते जीवयामि च जीव्ये च परैः सत्त्वैः । स मूढोऽज्ञानी ज्ञान्यतस्तु विपरीतः ।।२५०।। आयुरुदयेन जीवति जीव एवं भणंति सर्वज्ञाः। आयुश्च न ददासि त्वं कथं त्वया जीवितं कृतं तेषाम् ।।२५१।। आयुरुदयेन जीवति जीव एवं भणंति सर्वज्ञाः। आयुश्च न ददति तव कथं नु ते जीवितं कतं तैः ।।२५२।। (हरिगीत) मैं मारता हूँ अन्य को या मुझे मारें अन्यजन । यह मान्यता अज्ञान है जिनवर कहें हे भव्यजन ।।२४७।। निज आयुक्षय से मरण हो यह बात जिनवर ने कही। तुम मार कैसे सकोगे जब आयु हर सकते नहीं।।२४८।। निज आयुक्षय से मरण हो यह बात जिनवर ने कही। वे मरण कैसे करें तब जब आयु हर सकते नहीं ।।२४९।। मैं हूँ बचाता अन्य को मुझको बचावे अन्यजन । यह मान्यता अज्ञान है जिनवर कहें हे भव्यजन।।२५०।। सब आयु से जीवित रहें - यह बात जिनवर ने कही। जीवित रखोगे किसतरह जब आयु दे सकते नहीं ।।२५१।। सब आयु से जीवित रहें यह बात जिनवर ने कही। कैसे बचावें वे तुझे जब आयु दे सकते नहीं ।।२५२।। जो यह मानता है कि मैं पर जीवों को मारता हूँ और पर जीव मुझे मारते हैं; वह मूढ़ है, अज्ञानी है और जो इससे विपरीत है अर्थात् ऐसा नहीं मानता है; वह ज्ञानी है। जीवों का मरण आयुकर्म के क्षय से होता है - ऐसा जिनवरदेव ने कहा है। तू परजीवों के आयुकर्म को तो हरता नहीं है; फिर तूने उनका मरण कैसे किया ? जीवों का मरण आयुकर्म के क्षय से होता है - ऐसा जिनवरदेव ने कहा है। पर जीव तेरे आयुकर्म को तो हरते नहीं हैं; फिर उन्होंने तेरा मरण कैसे किया ? जो जीव यह मानता है कि मैं परजीवों को जिलाता हूँ और परजीव मझे जिलाते हैं: वह मढ है; अज्ञानी है और जो इससे विपरीत है अर्थात् ऐसा नहीं मानता; वह ज्ञानी है।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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