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________________ बंधाधिकार ३५७ परजीवानहं हिनस्मि, परजीवैर्हिस्ये चाहमित्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम् । स तु यस्यास्ति सोऽज्ञानि त्वान्मिथ्यादृष्टिः, यस्य तु नास्ति स ज्ञानित्वात्सम्यग्दृष्टिः। कथमयमध्यवसायोऽज्ञानमिति चेत् - मरणं हि तावज्जीवानां स्वायुःकर्मक्षयेणैव, तदभावे तस्य भावयितुमशक्यत्वात्; स्वायु:कर्म च नान्येनान्यस्य हर्तुं शक्यं, तस्य स्वोपभोगेनैव क्षीयमाणत्वात्; ततो न कथंचनापि अन्योऽन्यस्य मरणं कुर्यात् । ततो हिनस्मि, हिंस्ये चेत्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम्। जीवनाध्यवसायस्य तद्विपक्षस्य का वार्तेति चेत् - परजीवानहं जीवयामि, परजीवै व्ये चाहमित्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम् । स तु यस्यास्ति सोऽज्ञानित्वान्मिथ्यादृष्टिः, यस्य तु नास्ति स ज्ञानित्वात् सम्यग्दृष्टिः। कथमयमध्यवसायोऽज्ञानमिति चेत् - जीवितं हि तावजीवानां स्वायुःकर्मोदयेनैव, तदभावे तस्य भावयितुमशक्यत्वात्; स्वायु:कर्म च नान्येनान्यस्य दातुं शक्यं, तस्य स्वपरिणामेनैव उपायंमाणत्वात्; ततो न कथंचनापि अन्योऽन्यस्य जीवितं कुर्यात् । अतो जीवयामि, जीव्ये चेत्यध्यवसायो ध्रुवमज्ञानम् ।।२४७-२५२।। ___ जीव आयुकर्म के उदय से जीता है - ऐसा सर्वज्ञदेव कहते हैं। तू परजीवों को आयुकर्म तो देता नहीं है; फिर तूने उनका जीवन कैसे किया ? जीव आयुकर्म के उदय से जीता है - ऐसा सर्वज्ञदेव कहते हैं। परजीव तुझे आयुकर्म तो देते नहीं हैं; फिर उन्होंने तेरा जीवन कैसे किया ? इन गाथाओं का अर्थ आत्मख्याति में अत्यन्त संक्षेप में इसप्रकार किया गया है - मैं परजीवों को मारता हूँ और परजीव मझेमारते हैं - ऐसा अध्यवसाय (मिथ्या अभिप्राय) नियम से अज्ञान है। वह अध्यवसाय जिसके है, वह अज्ञानीपने के कारण मिथ्यादृष्टि है और वह अध्यवसाय जिसके नहीं है, वह ज्ञानीपने के कारण सम्यग्दृष्टि है। ___ वस्तुत: जीवों का मरण तो अपने आयुकर्म के क्षय से ही होता है; क्योंकि अपने आयुकर्म के क्षय के अभाव में मरण होना अशक्य है तथा किसी के द्वारा किसी के आयुकर्म का हरण अशक्य है; क्योंकि वह आयुकर्म अपने उपभोग से ही क्षय होता है। इसप्रकार कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति का मरण किसी भी प्रकार से नहीं कर सकता है। इसलिए मैं परजीवों को मारता हूँ और परजीव मुझे मारते हैं - ऐसा अध्यवसाय ध्रुवरूप से अज्ञान है। इसीप्रकार परजीवों को मैं जिलाता हूँ और परजीव मुझे जिलाते हैं - इसप्रकार का अध्यवसाय भी ध्रुवरूप से अज्ञान है। यह अध्यवसाय जिसके है, वह जीव अज्ञानीपने के कारण मिथ्यादृष्टि है और जिसके यह अध्यवसाय नहीं है, वह ज्ञानीपने के कारण सम्यग्दृष्टि है। ___ जीवों का जीवन अपने आयुकर्म के उदय से ही है; क्योंकि अपने आयुकर्म के उदय के अभाव में जीवित रहना अशक्य है। अपना आयुकर्म कोई किसी को दे नहीं सकता; क्योंकि वह स्वयं के परिणाम से ही उपार्जित होता है; इसकारण कोई किसी भी प्रकार से किसी का जीवन नहीं कर सकता है। इसलिए मैं पर को जिलाता हूँ और पर मुझे जिलाते हैं - इसप्रकार का अध्यवसाय ध्रुवरूप से अज्ञान है।"
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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