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बंधाधिकार
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(वसन्ततिलका) जानाति यः स न करोति करोति यस्तु जानात्ययं न खलु तत्किल कर्मरागः । रागं त्वबोधमयमध्यवसायमाहु
मिथ्यादृशः स नियतं स च बंधहेतुः ।।१६७।। जो मण्णदि हिंसामि य हिंसिज्जामि य परेहिं सत्तेहिं । सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो ।।२४७।। आउक्खयेण मरणं जीवाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं । आउं ण हरेसि तुमं कह ते मरणं कदं तेसिं ।।२४८।। आउक्खयेण मरणं जीवाणं जिणवरेहिं पण्णत्तं । आउं ण हरंति तुहं कह ते मरणं कदं तेहिं ।।२४९।। जो मण्णदि जीवेमि य जीविज्जामि य परेहिं सत्तेहिं। सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो ।।२५०।। आऊदयेण जीवदि जीवो एवं भणंति सव्वण्हू। आउं च ण देसि तुमं कहं तए जीविदं कदं तेसिं ।।२५१।। आऊदयेण जीवदि जीवो एवं भणंति सव्वण्हू। आउं च ण दिति तुहं कहं णु ते जीविदं कदं तेहिं ।।२५२।।
(हरिगीत) जो ज्ञानीजन हैं जानते वे कभी भी करते नहीं। करना तो है बस राग ही जो करें वे जानें नहीं।। अज्ञानमय यह राग तो है भाव अध्यवसान ही।
बंध कारण कहे ये अज्ञानियों के भाव ही ।।१६७।। जो जानता है, सो करता नहीं है और जो करता है, सो जानता नहीं है। करना तो वास्तव में कर्म का राग है और राग को अज्ञानमय अध्यवसाय कहा है; जो कि नियम से मिथ्यादृष्टि के ही होते हैं और वे ही अध्यवसाय बंध के कारण हैं।
विगत कलश में कहा गया है कि पर में कर्तृत्व की बुद्धि अज्ञानमय अध्यवसान है। अब आगामी गाथाओं में उसी बात को विस्तार से समझाते हैं; जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है -