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समयसार
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(पृथ्वी ) तथापि न निरर्गलं चरितुमिष्यते ज्ञानिनां तदायतनमेव सा किल निरर्गला व्यापृतिः। अकामकृतकर्म तन्मतमकारणं ज्ञानिनां
द्वयं न हि विरुध्यते किमु करोति जानाति च ।।१६६।। भले ही लोक कार्मणवर्गणा से भरा हुआ हो; मन, वचन एवं काय के परिस्पन्दरूप योग भी हो; अनेकप्रकार के पूर्वोक्त करण भी हों तथा चेतन-अचेतन पदार्थों का घात भी हो; तो भी आश्चर्य की बात तो यह है कि ऐसी स्थिति में भी सम्यग्दृष्टि आत्मा रागादि को उपयोग भूमि में न लाता हुआ मात्र ज्ञानरूप परिणमित होता हुआ किसी भी कारण से बंध को प्राप्त नहीं होता। सम्यग्दर्शन की कुछ ऐसी ही महिमा है।
यद्यपि कार्मणवर्गणा, मन-वचन-कायरूप योग, चेतन-अचेतन की हिंसा और पंचेन्द्रियों के भोगों से बंध नहीं होता; तथापि निरर्गल प्रवृत्ति उचित नहीं है। अब इस भावना को व्यक्त करनेवाला कलश काव्य कहते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) तो भी निरर्गल प्रवर्तन तो ज्ञानियों को वर्ण्य है। क्योंकि निरर्गल प्रवर्तन तो बंध का स्थान है।। वांछारहित जो प्रवर्तन वह बंध विरहित जानिये।
जानना करना परस्पर विरोधी ही मानिये ।।१६६।। यद्यपि उक्त चार कारणों से बंध नहीं होता; तथापि ज्ञानियों को निरर्गल प्रवृत्ति करना योग्य नहीं है; क्योंकि वह निरर्गल प्रवर्तन वस्तुत: बंध का ही आयतन (स्थान) है। ज्ञानियों को जो यहाँ वांछारहित कर्म होता है, वह बंध का कारण नहीं है क्योंकि जानता भी है और करता भी है - यह दोनों क्रियायें क्या विरोधरूप नहीं हैं ?
इसप्रकार इस १६६वें कलश में यह बताया गया है कि यद्यपि शारीरिक क्रियाओं से बंध नहीं होता; तथापि ज्ञानियों को निरर्गलप्रवृत्ति नहीं करना चाहिए, स्वच्छन्दप्रवृत्ति नहीं करना चाहिए; क्योंकि स्वच्छन्दप्रवृत्ति रागादिभावों के बिना संभव नहीं है तथा रागादिभाव तो बंध के कारण ही हैं।
विगत कलश की अन्तिम पंक्ति में कहा गया था कि जाननक्रिया और करना क्रिया क्या परस्पर विरुद्ध नहीं हैं ? अब आगामी कलश में इसी बात को विस्तार से स्पष्ट करते हैं।
मूल कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है -