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बंधाधिकार
३५३ यथा पुनः स चैव नरः स्नेहे सर्वस्मिन्नपनीते सति । रेणुबहले स्थाने करोति शस्त्रैर्व्यायामम् ।।२४२।। छिनति भिनत्ति च तथा तालीतलकदलीवंशपिंडीः। सचित्ताचित्तानां करोति द्रव्याणामुपघातम् ।।२४३।। उपघातं कुर्वतस्तस्य नानाविधैः करणैः। निश्चयतश्चित्यतांखलु किंप्रत्ययिको न रजोबन्धः ।।२४४।। यः स तु स्नेहभावस्तस्मिन्नरे तेन तस्य रजोबन्धः। निश्चयतो विज्ञेयं न कायचेष्टाभिः शेषाभिः ।।२४५।। एवं सम्यग्दृष्टिवर्तमानो बहविधेषु योगेषु ।
अकुर्वन्नुपयोगे रागादीन् न लिप्यते रजसा ।।२४६।। यथा स एव पुरुषः, स्नेहे सर्वस्मिन्नपनीते सति, तस्यामेव स्वभावत एव रजोबहुलायां भूमौ तदेव शस्त्रव्यायामकर्म कुर्वाणः, तैरेवानेकप्रकारकरणैस्तान्येव सचित्ताचित्तवस्तूनि निघ्नन्, रजसा न बध्यते, स्नेहाभ्यंगस्य बन्धहेतोरभावात्; तथा सम्यग्दृष्टिः, आत्मनि रागादी न कुर्वाण: सन्, तस्मिन्नेव स्वभावत एव कर्मयोग्यपुद्गलबहुले लोके तदेव कायवाङ्मनःकर्म कुर्वाणः, तैरेवानेकप्रकारकरणैस्तान्येव सचित्ताचित्तवस्तूनि निघ्नन् कर्मरजसा न बध्यते, रागयोगस्य बंधहेतोरभावात् ।।२४२-२४६॥
(शार्दूलविक्रीडित ) लोकः कर्मततोऽस्तु सोऽस्तु च परिस्पन्दात्मकं कर्म तत् तान्यस्मिन्करणानि संतु चिदचिद्व्यापादनं चास्तु तत् । रागादीनुपयोगभूमिमनयन् ज्ञानं भवन्केवलं
बंधं नैव कुतोऽप्युपैत्ययमहो सम्यग्दृगात्मा ध्रुवम् ।।१६५।। इन गाथाओं का स्पष्टीकरण आत्मख्याति में इसप्रकार किया गया है -
"जिसप्रकार वही पुरुष सम्पूर्ण चिकनाहट को दूर कर देने पर उसी स्वभाव से ही धूलि से भरी हुई भूमि में वहीं शस्त्रव्यायामरूपी कर्म (कार्य) को करता हुआ, उन्हीं अनेकप्रकार के करणों के द्वारा उन्हीं सचित्ताचित्त वस्तुओं का घात करता हुआ धूलि से लिप्त नहीं होता; क्योंकि उसके धूलि से लिप्त होने का कारण तेलादि के मर्दन का अभाव है।
उसीप्रकार सम्यग्दृष्टि अपने में रागादि को न करता हुआ, उसी स्वभाव से बहु कर्मयोग्य पुद्गलों से भरे हुए लोक में वही मन-वचन-काय की क्रिया करता हुआ, उन्हीं अनेकप्रकार के करणों के द्वारा उन्हीं सचित्ताचित्त वस्तुओं का घात करता हुआ, कर्मरूपी रज से नहीं बँधता; क्योंकि उसके बंध के कारणभूत राग के योग का अभाव है।" अब इसी अर्थ का पोषक कलश काव्य लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) भले ही सब कर्मपुद्गल से भरा यह लोक हो। भले ही मन-वचन-तन परिस्पन्दमय यह योग हो।। चिद् अचिद् का घात एवं करण का उपभोग हो। फिर भी नहीं रागादिविरहित ज्ञानियों को बंध हो ।।१६५।।