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तस्य कतमो बंधहेतुः ?
न तावत्स्वभावत एव रजोबहुला भूमिः, स्नेहानभ्यक्तानामपि तत्रस्थानां तत्प्रसंगात् । न शस्त्रव्यायामकर्म, स्नेहानभ्यक्तानामपि तस्मात् तत्प्रसंगात् ।
नानेकप्रकारकरणानि, स्नेहानभ्यक्तानामपि तैस्तत्प्रसंगात् ।
न सचित्ताचित्तवस्तूपघातः, स्नेहानभ्यक्तानामपि तस्मिंस्तत्प्रसंगात् ।
ततो न्यायबलेनैवैतदायातं, यत्तस्मिन् पुरुषे स्नेहाभ्यंगकरणं स बंधहेतुः ।
समयसार
एवं मिथ्यादृष्टिः आत्मनि रागादीन् कुर्वाणः, स्वभावत एव कर्मयोग्यपुद्गलबहुले लोके कायवाङ्मनः कर्म कुर्वाणः, अनेकप्रकारकरणैः सचित्ताचित्तवस्तूनि निघ्नन्, कर्मरजसा बध्यते । तस्य कतमो बंधहेतुः ?
न तावत्स्वभावत एव कर्मयोग्यपुद्गलबहुलो लोकः, सिद्धानामपि तत्रस्थानां तत्प्रसंगात् ।
स्वभाव से बहुधूलिवाली भूमि तो धूलिबंध का कारण है नहीं; क्योंकि यदि ऐसा हो तो जिन्होंने तेलादि का मर्दन नहीं किया है, पर धूलिवाली भूमि में स्थित हैं; उन्हें भी धूलिबंध का प्रसंग आयेगा ।
शस्त्रों से व्यायामरूप कार्य भी धूलिबंध का कारण नहीं है; क्योंकि यदि ऐसा हो तो जिन्होंने तेलादि का मर्दन नहीं किया है, पर शस्त्रादि से व्यायाम कर रहे हैं; उन्हें भी धूलिबंध का प्रसंग आयेगा ।
अनेकप्रकार के करण (साधन) भी धूलिबंध के कारण नहीं हैं; क्योंकि यदि ऐसा हो तो जिन्होंने तेलादि मर्दन नहीं किया है, पर अनेकप्रकार के करणों से सहित हैं; उन्हें धूलिबंध का प्रसंग आयेगा ।
सचित्त और अचित्त वस्तुओं का घात भी धूलिबंध का कारण नहीं है; क्योंकि यदि ऐसा हो तो जिन्होंने तेलादि का मर्दन नहीं किया है, पर जिनके द्वारा सचित्त और अचित्त वस्तुओं का घात होता है; उन्हें भी धूलिबंध का प्रसंग आयेगा ।
इसप्रकार यह बात न्यायबल से सिद्ध हो जाती है कि उक्त पुरुष के धूलिबंध का कारण तेल का मर्दन ही है।
इसप्रकार अपने में रागादिभाव करता हुआ मिथ्यादृष्टि जीव स्वभाव से ही बहुत से कर्मयोग्य पुद्गलों (कार्मणवर्गणाओं) से भरे हुए इस लोक में काय, वचन और मन संबंधी कार्य करते हुए अनेकप्रकार के करणों (साधनों) के द्वारा सचित्त और अचित्त वस्तुओं का घात करता हुआ कर्मरूप रज से बँधता है ।
यहाँ विचार करो कि उक्त कारणों में से मिथ्यादृष्टि जीव को बंध होने का कारण कौन है ? स्वभाव से कर्मयोग्य पुद्गलों (कार्मणवर्गणाओं) से भरा हुआ लोक तो बंध का कारण है नहीं; क्योंकि यदि ऐसा हो तो लोकाग्र में स्थित सिद्धों के भी बंध का प्रसंग आयेगा ।