________________
बंधाधिकार
३५१ न कायवाङ्मन:कर्म, यथाख्यातसंयतानामपि तत्प्रसंगात् । नानेकप्रकारकरणानि, केवलज्ञानिनामपि तत्प्रसंगात् । न सचित्ताचित्तवस्तूपघातः, समितितत्पराणामपि तत्प्रसंगात् । ततो न्यायबलेनैवैतदायातं, यदुपयोगे रागादिकरणं स बंधहेतुः ।।२३७-२४१ ।।
(पृथ्वी ) न कर्मबहुलं जगन्न चलनात्मकं कर्म वा न नैककरणानि वा न चिदचिद्वधो बंधकृत् । यदैक्यमुपयोगमभूः समुपयाति रागादिभिः
स एव किल केवलं भवति बंधहेतुर्नृणाम् ।।१६४।। काय, वचन और मन की क्रिया भी बंध का कारण नहीं है; क्योंकि यदि ऐसा हो तो यथाख्यातसंयमियों के भी बंध का प्रसंग आयेगा।
अनेकप्रकार के करण (इन्द्रियाँ) भी बंध के कारण नहीं हैं; क्योंकि यदि ऐसा हो तो केवलज्ञानियों के भी बंध का प्रसंग आयेगा।
सचित्त और अचित्त वस्तुओं का घात भी बंध का कारण नहीं है; क्योंकि यदि ऐसा हो तो समिति में तत्पर यत्नपूर्वक प्रवृत्ति करनेवाले साधुओं के भी बंध का प्रसंग आयेगा।
इसप्रकार यह बात न्यायबल से ही सिद्ध हो जाती है कि उपयोग में रागादि का होना ही बंध का कारण है।" इसीप्रकार का भाव आगामी कलश में भी व्यक्त किया गया है, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है
( हरिगीत ) कर्म की ये वर्गणाएँ बंध का कारण नहीं। अत्यन्त चंचल योग भी हैं बंध के कारण नहीं।। करण कारण हैं नहीं चिद्-अचिद् हिंसा भी नहीं।
बस बंध के कारण कहे अज्ञानमय रागादि ही ।।१६४।। पुरुषों के लिए कर्मबंध करनेवाला न तो कर्मयोग्य पुद्गलों से भरा हुआ लोक है, न चलन स्वरूप कर्म अर्थात् मन-वचन-काय की क्रिया है, न अनेकप्रकार के करण हैं और न चेतनअचेतन का घात है; किन्तु आत्मा में रागादि के साथ होनेवाली एकत्वबुद्धि ही एकमात्र बंध का वास्तविक कारण है। इस कलश में वही बात दुहरा दी गई है, जो गाथाओं और उनकी टीका में कही गई है।
विगत पाँच गाथाओं में मिथ्यादृष्टि को मिथ्यात्वसहित रागादि के कारण बंध होता है - यह बताया था; अब आगामी पाँच गाथाओं में यह बताते हैं कि उन्हीं परिस्थितियों में मिथ्यात्व सहित रागादिभावों के अभाव के कारण सम्यग्दृष्टियों को बंध नहीं होता।