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________________ ३४८ समयसार जह णाम को वि पुरिसो णेहब्भत्तो दु रेणुबहुलम्मि । ठाणम्मि ठाइदूण य करेदि सत्थेहिं वायामं ।। २३७ ।। छिंदति भिंददि य तहा तालीतलकयलिवंसपिंडीओ । सच्चित्ताचित्ताणं करेदि दव्वाणमुवघादं ।।२३८ ।। उवघादं कुव्वंतस्स तस्स णाणाविहेहिं करणेहिं । णिच्छयदो चिंतेज्ज हु किंपच्चयगो दु बंधो ।।२३९।। जो सो दु णेहभावो तम्हि णरे तेण तस्स रयबंधो । णिच्छयदो विण्णेयं ण कायचेट्ठाहिं सेसाहिं ।। २४० ।। एवं मिच्छादिट्ठी वट्टंतो बहुविहासु चिट्ठासु । रागादी उवओगे कुव्वंतो लिप्पदि इस मंगलाचरण के कलश में बंध को धुननेवाले उदितज्ञान को स्मरण किया गया है। सम्पूर्ण जगत को मोहरूपी मदिरा पिलाकर मदोन्मत्त करके यह बंधरूपी सुभट महानृत्य करते हुए खेल रहा था। ऐसे बंधरूपी सुभट को पराजित करके ज्ञानरूपी सुभट उदय को प्राप्त होता है। वह ज्ञानरूपी सुभट धीर है, उदार है, अनाकुल है और सभी प्रकार की उपाधियों से रहित है। रएण ।। २४१ ।। इसप्रकार इस कलश में बंध का अभाव करनेवाले सम्यग्दर्शन सहित सम्यग्ज्ञान को नमस्कार किया गया है। मंगलाचरण के उपरान्त अब मूल गाथायें आरंभ करते हैं । सर्वप्रथम अज्ञानी जीव रागादि से लिप्त होने के कारण बंध को प्राप्त होता है - इस बात को पाँच गाथाओं के द्वारा सोदाहरण समझाते हैं। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है - ( हरिगीत ) ज्यों तेल मर्दन कर पुरुष रेणु बहुल स्थान में । व्यायाम करता शस्त्र से बहुविध बहुत उत्साह से ।। २३७।। तरु ताड़ कदली बाँस आदिक वनस्पति छेदन करे । सचित्त और अचित्त द्रव्यों का बहुत भेदन करे ।। २३८ । । बहुविध बहुत उपकरण से उपघात करते पुरुष को । परमार्थ से चिन्तन करो रजबंध किस कारण हुआ ।। २३९ ।। चिकनाई ही रजबंध का कारण कहा जिनराज ने । पर कायचेष्टादिक नहीं यह जान लो परमार्थ से ।। २४० ।। बहुभाँति चेष्टारत तथा रागादि को करते हुए । सब कर्मरज से लिप्त होते हैं जगत में अज्ञजन ।। २४१ ।।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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