________________
बंधाधिकार
( शार्दूलविक्रीडित ) रागोद्गारमहारसेन सकलं कृत्वा प्रमत्तं जगत् क्रीडतं रसभावनिर्भरमहानाट्येन बंधं धुनत् । आनंदामृतनित्यभोजि सहजावस्थां स्फुटं नाटयद्धीरोदारमनाकुलं निरुपधि ज्ञानं समुन्मज्जति । । १६३ ।।
अथ प्रविशति बंधः ।
मंगलाचरण
दोहा )
करम - योग - हिंसा - विषय, न कर्मबंध के हेतु ।
मोह, राग अर द्वेष हैं, कर्मबंध के हेतु ।।
जीवाजीवाधिकार से संवराधिकार तक भगवान आत्मा को परपदार्थों और विकारी भावों से भिन्न बताकर अनेकप्रकार से भेदविज्ञान कराया और निर्जराधिकार में भेदविज्ञान सम्पन्न आत्मानुभवी सम्यग्दृष्टियों को भूमिकानुसार भोग और संयोगों का योग होने पर भी बंध नहीं होता, अपितु निर्जरा होती है - इस बात को सयुक्ति समझाया है।
अब बंधाधिकार में बंध का मूलकारण क्या है ? - इस बात पर गंभीरता से विचार करते हैं । इस अधिकार की आत्मख्याति टीका आरंभ करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र अन्य अधिकारों के समान यहाँ भी आरंभिक वाक्य इसप्रकार लिखते हैं
-
'अब बंध प्रवेश करता है ।' तात्पर्य यह है कि अब रंगमंच पर बंधतत्त्व प्रवेश करता है । यह तो सर्वविदित ही है कि इस ग्रन्थाधिराज को आत्मख्याति टीका में नाटक के रूप में प्रस्तुत किया गया है ।
आत्मख्यातिकार आचार्य अमृतचन्द्र सर्वप्रथम बंध का अभाव करनेवाले निरुपधि सम्यग्ज्ञान को स्मरण करते हुए मंगलाचरण करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है
-
( हरिगीत )
मदमत्त हो मदमोह में इस बंध ने नर्तन किया । रसराग के उद्गार से सब जगत को पागल किया ।। उदार अर आनन्दभोजी धीर निरुपधि ज्ञान ने ।
अति ही अनाकुलभाव से उस बंध का मर्दन किया । । १६३ ।।
नित्य ही आनन्दामृत का भोजन करनेवाला धीर, उदार, अनाकुल और निरुपधि ज्ञान राग के उदयरूपी महारस के द्वारा समस्त जगत को प्रमत्त करके रसभाव से भरे
हुए, नृत्य करते हुए,
खेलते
हुए बंध को धुनता (नष्ट करता) हुआ उदय को प्राप्त होता है।