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________________ ३४६ समयसार इसप्रकार सम्यग्दर्शन के आठ अंगों के सन्दर्भ में निश्चय अंग और व्यवहार अंग का स्वरूप भलीभाँति स्पष्ट हो जाता है; किन्तु इस समयसार ग्रंथ में निश्चय की मुख्यता से ही इन अंगों का कथन है। यह बात विशेष ध्यान रखने योग्य है। अब इस निर्जरा अधिकार का समापन करते हुए सम्यग्दर्शन की महिमा व्यक्त करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र अन्तिम कलश लिखते हैं; जो इसप्रकार है इति निर्जरा निष्क्रांता । इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां समयसारख्याख्यामात्मख्यातौ निर्जराप्ररूपकः षष्ठोऽङ्कः । ( दोहा ) बंधन हो नव कर्म का, पूर्व कर्म का नाश । नृत्य करें अष्टांग में, सम्यग्ज्ञान प्रकाश ।। १६२ ।। इसप्रकार नवीन बंध रोकता हुआ और अपने आठ अंगों से युक्त होने के कारण निर्जरा प्रगट होने से पूर्वबद्धकर्मों का नाश करता हुआ सम्यग्दृष्टि जीव स्वयं निजात्मा के अतिरस से आदि, मध्य और अंतरहित ज्ञानरूप होकर आकाश के विस्ताररूपी रंगभूमि में अवगाहन करके नाचता है। उक्त कलश में नवीन बंध को रोकनेवाले और पुराने कर्मों की निर्जरा करनेवाले अष्ट अंगों से युक्त सम्यग्दृष्टि जीव आनन्द में मग्न होकर नाचते हैं - ऐसा कहकर सम्यक्त्व की महिमा बताई गई है । इसप्रकार इस अधिकार में सम्यग्दृष्टि धर्मात्माओं के निरंतर होनेवाली निर्जरा का स्वरूप स्पष्ट किया गया है। प्रत्येक अधिकार के समान इस अधिकार के अन्त में भी आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि इसप्रकार रंगभूमि से निर्जरातत्त्व निकल गया । इसप्रकार आचार्य कुन्दकुन्दकृत समयसार की आचार्य अमृतचन्द्रकृत आत्मख्याति नामक संस्कृत टीका में निर्जरा का प्ररूपक छठवाँ अंक समाप्त हुआ । ...
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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