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निर्जराधिकार
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मुक्तिमगगत साधुत्रय प्रति रखें वत्सल भाव जो। वे आतमा वत्सली सम्यग्दृष्टि हैं यह जानना ।।२३५।। सद्ज्ञानरथ आरूढ़ हो जो भ्रमे मनरथ मार्ग में। वे प्रभावक जिनमार्ग के सदृष्टि उनको जानना ।।२३६।।
य: करोति वत्सलत्वं त्रयाणां साधूनां मोक्षमार्गे। स वत्सलभावयुतः सम्यग्दृष्टिातव्यः ।।२३५।। विद्यारथमारूढ़ः मनोरथपथेषु भ्रमति यश्चेतयिता।
स जिनज्ञानप्रभावी सम्यग्दृष्टितिव्यः ।।२३६।। यतो हि सम्यग्दृष्टिः टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां स्वस्मादभेदबुद्धया सम्यग्दर्शनान्मार्गवत्सलः, ततोऽस्य मार्गानुपलंभकृतो नास्ति बंध:, किन्तु निर्जरैव।
यतो हि सम्यग्दृष्टिः टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन ज्ञानस्य समस्तशक्तिप्रबोधेन प्रभावजननात्प्रभावनाकरः, ततोऽस्य ज्ञानप्रभावनाप्रकर्षकृतो नास्ति बंध:, किंतु निर्जरैव ।।२३५-२३६ ।।
(मन्दाक्रान्ता) रुंधन बंधं नवमिति निजैः संगतोऽष्टाभिरंग: प्राग्बद्धं तु क्षयमुपनयन् निर्जरोज्जृम्भणेन । सम्यग्दृष्टिः स्वयमतिरसादादिमध्यांतमुक्तं
ज्ञानं भूत्वा नटति गगनाभोगरंगं विगाह्य ।।१६२।। जो चेतयिता मोक्षमार्ग में स्थित निश्चय से सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र - इन साधनों के प्रति अथवा व्यवहार से आचार्य, उपाध्याय और साधु - इन साधुओं के प्रति वात्सल्य करता है; वह वात्सल्य अंग का धारी सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए।
जो चेतयिता विद्यारूपी रथ पर आरूढ़ हुआ, मनरूपी रथ के पथ में भ्रमण करता है; वह जिनेन्द्र भगवान के ज्ञान की प्रभावना करनेवाला अर्थात् प्रभावना अंग का धारी सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए।
इन गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
“सम्यग्दृष्टि जीव टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमय होने के कारण सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र को अपने से अभेदबुद्धि से सम्यक्तया देखता है, अनुभव करता है; इसकारण मार्गवत्सल है, मोक्षमार्ग के प्रति अति प्रीतिवाला है, वात्सल्य अंग का धारी है और ज्ञान की समस्त शक्ति को प्रगट करके, विकसित करके स्वयं में प्रभाव उत्पन्न करता है, प्रभावना करता है। इसकारण प्रभावना अंग का धारी है। इसलिए उसे मार्ग की अनुपलब्धि से होनेवाला और ज्ञान की प्रभावना के अपकर्ष से होनेवाला बंध नहीं होता; अपितु निर्जरा ही होती है।"