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समयसार
३४२ होती है।"
उक्त कथन का भाव यह है कि जब ज्ञानी की दृष्टि में बंध के चारों कारणों में अपनापन नहीं रहा तो आत्मा में तो उनका अभाव ही हो गया। कदाचित् लोक में उनकी सत्ता हो भी तो ज्ञानी को उससे क्या अन्तर पड़ता है; जब उसका अपनापन टूट गया तो उसके लिए तो अभाव ही हो गया। अब नि:कांक्षित अंग संबंधी गाथा कहते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
यस्तु न करोति कांक्षा कर्मफलेषु तथा सर्वधर्मेषु ।
स निष्कांक्षश्चेतयिता सम्यग्दृष्टितिव्यः ।।२३०।। यतो हि सम्यग्दृष्टिः टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन सर्वेष्वपि कर्मफलेषु सर्वेषु वस्तुधर्मेषु च कांक्षाभावान्निष्कांक्षः, ततोऽस्य कांक्षाकृतो नास्ति बंधः, किंतु निर्जरैव ।।२३०।।
जो ण करेदि दुगुंछं चेदा सव्वेसिमेव धम्माणं । सो खलु णिव्विदिगिच्छो सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ।।२३१।। जो हवदि असम्मूढो चेदा सद्दिट्ठि सव्वभावेसु। सो खलु अमूढदिट्ठी सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ।।२३२।।
(हरिगीत ) सब धर्म एवं कर्मफल की ना करें आकांक्षा।
वे आतमा नि:कांक्ष सम्यग्दृष्टि हैं - यह जानना ।।२३०।। जो चेतयिता आत्मा कर्मों के फलों के प्रति और सर्व धर्मों के प्रति कांक्षा नहीं करता; उसको नि:कांक्षित अंग का धारी सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए।
इस गाथा का भाव आत्मख्याति टीका में आचार्य अमृतचन्द्र नि:शंकित अंग के समान ही अति संक्षेप में स्पष्ट करते हैं। शब्दावली भी बहत कुछ नि:शंकित के समान ही है।
आत्मख्याति का कथन इसप्रकार है -
“सम्यग्दृष्टि जीव टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमय होने के कारण सभी कर्मफलों एवं वस्तुधर्मों के प्रति कांक्षा का अभाव होने से नि:कांक्षित अंग सहित होते हैं; इसलिए उन्हें कांक्षाकृत बंध नहीं होता; किन्तु निर्जरा ही होती है।"
गाथा में सम्यग्दृष्टि जीव को कर्मफलों के साथ-साथ सर्वधर्मों के प्रति भी निर्वांच्छक बताया गया है तथा गाथा में समागत धर्म शब्द का स्पष्टीकरण आत्मख्याति में वस्तुधर्म कहकर किया है। अब निर्विचिकित्सा और अमूढदृष्टि अंग संबंधी गाथायें कहते हैं, जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है
(हरिगीत ) जो नहीं करते जुगुप्सा सब वस्तुधर्मों के प्रति । वे आतमा ही निर्जुगुप्सक समकिती हैं जानना ।।२३१।। सर्व भावों के प्रति सद्वृष्टि हैं असंमूढ़ हैं। अमूढ़दृष्टि समकिती वे आतमा ही जानना ।।२३२।।