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निर्जराधिकार क्रमनियमित प्रवाह पर अडिग आस्था रखनेवाले ज्ञानियों को आकस्मिकभय कैसे हो सकता है ?
सात भयों संबंधी कलश समाप्त होने के बाद आगामी गाथाओं का सूचक कलश काव्य लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(दोहा) नित निःशंक सद्वृष्टि को, कर्मबंध न होय।
पूर्वोदय को भोगते, सतत निर्जरा होय ।।१६१।। जो चत्तारि वि पाए छिंददि ते कम्मबंधमोहकरे। सो णिस्संको चेदा सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ।।२२९।।
यश्चतुरोऽपि पादान् छिनत्ति तान् कर्मबंधमोहकरान् ।
___ स निश्शंकश्चेतयिता सम्यग्दृष्टितिव्यः ।।२२९।। यतो हि सम्यग्दृष्टिः टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावमयत्वेन कर्मबंधशंकाकरमिथ्यात्वादिभावाभावानिश्शंकः, ततोऽस्य शंकाकृतो नास्ति बंध:, किंतु निर्जरैव ।।२२९।।
जो दु ण करेदि कंखं कम्मफलेसु तह सव्वधम्मेसु।
सो णिक्कंखो चेदा सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ।।२३०।। टंकोत्कीर्ण निजरस से परिपूर्ण ज्ञान के सर्वस्व को भोगनेवाले सम्यग्दृष्टियों के नि:शंकित आदि चिह्न (अंग) समस्त कर्मों को नष्ट करते हैं; इसकारण कर्मोदय होने पर भी सम्यग्दृष्टियों को पुनः किंचित्मात्र भी कर्म का बंध नहीं होता; किन्तु पूर्वबद्ध कर्मोदय को भोगने पर उस कर्म की नियम से निर्जरा ही होती है।
यह तो पहले कहा ही था कि नि:शंकित अंग संबंधी दो गाथायें हैं, जिनमें पहली की व्याख्या तो हो चुकी, जिसमें सप्तभयों को ही शंका दोष बताया गया है और उक्त सप्तभयों से रहित सम्यग्दृष्टि जीवों को नि:शंकित अंग का धारी कहा गया है।
अब इस गाथा में कर्मबंध के कारणरूप मिथ्यात्वादि चार भावों के अभावरूप भाव को निःशंकित अंग बताया जा रहा है; जो इसप्रकार है -
(हरिगीत ) जो कर्मबंधन मोह कर्ता चार पाये छेदते।
वे आतमा निःशंक सम्यग्दृष्टि हैं - यह जानना ।।२२९।। जो आत्मा कर्मबंध संबंधी मोह करनेवाले मिथ्यात्वादि भावरूप चारों पादों को छेदता है; उसको निःशंक अंग का धारी सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए।
आत्मख्याति में इस गाथा की टीका अतिसंक्षेप में लिखते हुए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं -
“सम्यग्दृष्टि जीव टंकोत्कीर्ण एकज्ञायकभावमय होने के कारण कर्मबंध की शंका करनेवाले (जीव निश्चय से भी कर्मों से बँधा है, आदि रूप संदेह या भय करनेवाले) मिथ्यात्वादि भावों का अभाव होने से निःशंक है, इसलिए उसे शंकाकृत बंध नहीं होता, किन्तु निर्जरा ही