________________
३४०
समयसार का नाश संभव ही नहीं है; इसकारण आत्मा को स्वयं के नाशरूप मरण का भय कैसे हो सकता है? इसप्रकार के चिन्तन के आधार पर ज्ञानीजन मरणभय से रहित होते हैं।
इसप्रकार इस कलश में यही कहा गया है कि आत्मा को अमर जाननेवाले ज्ञानीजीव मरणभय से आक्रान्त नहीं होते, आकुलित नहीं होते, अशान्त नहीं होते; वे तो निरन्तर नि:शंक ही रहते हैं, निर्भय ही रहते हैं। अब आकस्मिकभय संबंधी कलश काव्य लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(शार्दूलविक्रीडित ) एकं ज्ञानमनाद्यनंतमचलं सिद्ध किलैतत्स्वतो यावत्तावदिदं सदैव हि भवेन्नात्र द्वितीयोदयः । तन्नाकस्मिकमत्र किंचन भवेत्तद्भी: कुतो ज्ञानिनो निश्शंकः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विंदति ।।१६०।।
(मन्दाक्रान्ता) टंकोत्कीर्ण-स्वरस-निचितज्ञान-सर्वस्वभाज: सम्यग्दृष्टेर्यदिह सकलं घ्नंति लक्ष्माणि कर्म । तत्तस्यास्मिन्पुनरपि मनाक्कर्मणो नास्ति बंध: पूर्वापात्तं तदनुभवतो निश्चितं निर्जरैव ।।१६१।।
(हरिगीत ) इसमें अचानक कुछ नहीं यह ज्ञान निश्चल एक है। यह है सदा ही एक-सा एवं अनादि-अनंत है ।। जब जानते यह ज्ञानिजन तब होंय क्यों भयभीत वे।
वे तो सतत निःशंक हो निज ज्ञान का अनुभव करें।।१६०॥ यह स्वत:सिद्ध ज्ञान ही अनादि है, अनन्त है, अचल है और एक है; इसमें पर का उदय नहीं है; इसलिए इस ज्ञान में आकस्मिक कुछ भी नहीं होता। ऐसा जाननेवाले ज्ञानी को आकस्मिकभय कैसे हो सकता है? वह ज्ञानी तो स्वयं निःशंक रहता हआ सदा सहज ज्ञान का ही वेदन करता है।
जिसकी संभावना ही नहीं हो, जिसके होने की हमने कभी कल्पना ही न की हो; ऐसी कोई प्रतिकूलता न आ जाये, विपत्ति न आ जाये - ऐसी आशंका का नाम, ऐसी आकुलता का नाम, ऐसी अशान्ति का नाम आकस्मिकभय है। अज्ञानी जीवों को इसप्रकार का भय सदा ही बना रहता है।
दुर्घटना बीमा कराना या जीवन बीमा कराना आदि प्रयास इसीप्रकार के भय के परिणाम हैं।
ज्ञानी जीव इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि मेरा यह ज्ञानानन्दस्वभावी भगवान आत्मा तो अनादि-अनंत त्रिकालीध्रुव अचल पदार्थ है। इसमें कुछ भी आकस्मिक संभव नहीं है; क्योंकि एक तो इसमें पर का प्रवेश ही नहीं है, इसमें कुछ घटित ही नहीं होता है तो फिर कुछ भी दुर्घटित कैसे होगा ? दूसरे जब सबकुछ स्वयं की पर्यायगत योग्यता के अनुसार सुनिश्चित ही है तो फिर अचानक कुछ हो जाने की बात ही कहाँ रहती है ? इसप्रकार स्वयं के नित्यस्वभाव और पर्यायों के