SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 358
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निर्जराधिकार ३३९ प्रत्येक संसारी प्राणी स्वयं सुरक्षित स्थान पर रहना चाहता है और अपनी संपत्ति को भी सुरक्षित रखने के लिए गुप्त रखना चाहता है। इसकारण निरन्तर ऐसे गुप्त स्थान की खोज में रहता है कि जहाँ उसे या उसकी संपत्ति को कोई खतरा न हो। ऐसा स्थान प्राप्त होना तो संभव ही नहीं है; दूसरे यदि कहीं कोई स्थान अपेक्षाकृत सुरक्षित मिल भी जाये; तो भी वहाँ भी कोई प्रवेश न कर जाये - इस बात का भय सदा बना ही रहता है । इसप्रकार अज्ञानी प्राणी निरन्तर अगुप्तिभय से पीड़ित रहते हैं । ( शार्दूलविक्रीडित ) प्राणोच्छेदमुदाहरंति मरणं प्राणाः किलास्यात्मनो ज्ञानं तत्स्वयमेव शाश्वततया नोच्छिद्यते जातुचित् । तस्यातो मरणं न किंचन भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो निश्शंकः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विंदति ।। १५९ ।। किन्तु सम्यग्दृष्टि ज्ञानी जीव यह अच्छी तरह जानते हैं कि प्रत्येक वस्तु में नास्तित्व नाम का एक गुण है, शक्ति है; जिसका कार्य ही यह है कि स्ववस्तु में परवस्तु का प्रवेश ही न हो । आत्मा एक वस्तु है, उसमें भी आजतक न पर का प्रवेश ही हुआ है और न कभी होगा ही। इसकारण ह परमगुप्त ही है। उसे अन्य किसी गुप्त स्थान की आवश्यकता ही नहीं है, वह स्वयं ही ज्ञानानन्दस्वरूप अभेद्य किला है। इसप्रकार का चिन्तन और पक्के निर्णय के कारण ज्ञानी जीवों को अगुप्तिभय नहीं होता । अब मरणभय संबंधी कलश काव्य लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ( हरिगीत ) मृत्यु कहे सारा जगत बस प्राण के उच्छेद को । ज्ञान ही है प्राण मम उसका नहीं उच्छेद हो ।। तब मरणभय हो किस तरह हों ज्ञानिजन भयभीत क्यों । वे तो सतत निःशंक हो निज ज्ञान का अनुभव करें ।। १५९ ।। प्राणों के उच्छेद को मरण कहते हैं। निश्चय से आत्मा के प्राण तो ज्ञान ही हैं और उस ज्ञान के स्वयं शाश्वत होने से उसका नाश कभी भी संभव नहीं है। इसकारण आत्मा का मरण संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में ज्ञानी को मरणभय कैसे हो सकता है ? ज्ञानी तो निरन्तर स्वयं नि:शंक रहकर सहज ज्ञान का ही अनुभव करता है। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण - ये पाँच इन्द्रियाँ; मन, वचन और काय - ये तीन बल तथा आयु और श्वासोच्छ्वास - ये दस प्राण कहे गये हैं । व्यवहारनय से संसारी जीव इन प्राणों से जीता है और उनका वियोग होने से उसका मरण माना जाता है; किन्तु निश्चयनय से तो ज्ञानदर्शनरूप चेतना ही जीव के वास्तविक प्राण हैं । अनादि से अनन्तकाल तक रहनेवाले इन ज्ञान-दर्शन गुणों
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy