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________________ ३३८ समयसार अब आगामी कलश में अरक्षाभय की चर्चा करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत) निज आतमा सत् और सत् का नाश हो सकता नहीं। है सदा रक्षित सत् अरक्षाभाव हो सकता नहीं।। जब जानते यह ज्ञानिजन तब होंय क्यों भयभीत वे। वे तो सतत निःशंक हो निजज्ञान का अनुभव करें।।१५७।। ( शार्दूलविक्रीडित ) स्वं रूपं किल वस्तुनोऽस्ति परमा गुप्ति: स्वरूपे न यच्छक्तः कोऽपि परः प्रवेष्टमकतं ज्ञानं स्वरूपं च नः। अस्यागुप्तिरतो न काचन भवेत्तद्भीः कुतो ज्ञानिनो निश्शंकः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विंदति ।।१५८।। जो सत् है, उसका नाश नहीं होता - ऐसी वस्तुस्थिति प्रगट है। यह ज्ञान भी स्वयमेव सत् है; इसलिए यह भी नाश को प्राप्त नहीं होता। इसकारण पर के द्वारा उसके रक्षण की बात ही कहाँ उठती है ? अरे भाई! जब ज्ञान का किंचित्मात्र भी अरक्षण नहीं है, तब ज्ञानी को अरक्षाभय कैसे हो सकता है ? अतः ज्ञानी तो सहजज्ञान का वेदन करता हुआ निरन्तर निःशंक ही रहता है। उक्त कलश में इस बात को वजन देकर कहा गया है कि जो वस्तु सत्तास्वरूप है, अस्तित्वमयी है; उसका नाश होना संभव नहीं है; क्योंकि वस्तु का स्वरूप ही ऐसा है कि सत् का कभी नाश नहीं होता और असत् का उत्पाद नहीं होता। आत्मा भी एक वस्तु है; अत: उसका भी नाश संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में उसकी सुरक्षा की चिन्ता करना, उसका नाश न हो जाये - ऐसी आशंका से भयाक्रान्त रहना, सशंकित रहना कहाँ की समझदारी है। इस बात को ज्ञानीजन भली-भाँति जानते हैं; इसकारण उन्हें अरक्षाभय नहीं होता। यह तत्त्वज्ञान और तत्त्वचिंतन ज्ञानी जीवों को अरक्षाभय से मुक्त रखता है। अब अगुप्तिभय संबंधी कलश काव्य लिखते है; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) कोई किसी का कुछ करे यह बात संभव है नहीं। सब हैं सुरक्षित स्वयं में अगुप्ति का भय है नहीं।। जब जानते यह ज्ञानिजन तब होंय क्यों भयभीत वे। वे तो सतत निःशंक हो निजज्ञान का अनुभव करें।।१५८।। वास्तव में तो वस्तु का स्वरूप ही वस्तु की परमगुप्ति है; क्योंकि स्वरूप में पर का प्रवेश ही संभव नहीं है। अरे भाई ! अकृतज्ञान, स्वाभाविक ज्ञान, सहजज्ञान तो आत्मा का स्वरूप है; इसकारण आत्मा की किंचित्मात्र भी अगुप्तता नहीं है तो फिर आत्मा को अगुप्तिभय कैसे हो सकता है ? ज्ञानी तो नि:शंक वर्तता हआ निरन्तर सहजज्ञान का ही वेदन करता है।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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