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निर्जराधिकार
३३७ इस क्षणभंगुर लोक में संयोगों का वियोग तो निरन्तर होता ही रहता है; इसकारण अनुकूल संयोगों का सदा बना रहना तो संभव है ही नहीं। ऐसी स्थिति में यदि संयोगों में अपनापन रखा जायेगा तो इहलोकभय और परलोकभय अवश्यंभावी हैं; पर वस्तुस्थिति तो यही है कि पुण्य-पाप के उदय में होनेवाले संयोग अपने हैं ही नहीं; अत: उनके आने-जाने से अपना कुछ भी बनताबिगड़ता नहीं है। अपना चैतन्यलोक तो नित्य है, ध्रुव है; उसमें कुछ बिगाड़-सुधार होता ही नहीं है, इसकारण चिन्ता करने की कोई बात ही नहीं है।
(शार्दूलविक्रीडित) एषैकैव हि वेदना यदचलं ज्ञानं स्वयं वेद्यते निर्भेदोदितवेद्यवेदकबलादेकं सदानाकुलैः। नैवान्यागतवेदनैव हि भवेत्तद्धीः कुतो ज्ञानिनो निश्शंकः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विंदति ।।१५६।। यत्सन्नाशमुपैति तन्न नियतं व्यक्तेति वस्तुस्थितिआनं सत्स्वयमेव तत्किल ततस्त्रातं किमस्यापरैः । अस्यात्राणमतो न किंचन भवेत्तद्भी: कुतो ज्ञानिनो
निश्शंकः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विंदति ।।१५७।। ज्ञानी जीवों का इसप्रकार का चिन्तन ही उन्हें निर्भय और नि:शंक रखता है।
इसप्रकार १५५वें कलश में यही कहा गया है कि ज्ञानी जीवों को इहलोकभय और परलोकभय नहीं होता; क्योंकि वे इहलोक और परलोक को अपना लोक ही नहीं मानते हैं। वे तो चैतन्यलोक को ही अपना लोक जानते हैं, मानते हैं और सदा ही नि:शंक रहते हैं, निर्भय रहते हैं। अब आगामी कलश में वेदनाभय के संबंध में चर्चा करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) चूँकि एक-अभेद में ही वेद्य-वेदक भाव हों। अतएव ज्ञानी नित्य ही निजज्ञान का अनुभव करें।। अन वेदना कोई है नहीं तब होंय क्यों भयभीत वे।
वे तो सतत निःशंक हो निजज्ञान का अनुभव करें।।१५६।। वेद्य-वेदकभाव अभेद ही होते हैं. एक ही वस्तु में घटित होते हैं; इसकारण एक अचलज्ञान ही निराकुल ज्ञानियों के वेदन में आता है; यह एक वेदना ही ज्ञानियों के होती है, कोई दूसरी वेदना ज्ञानियों के होती ही नहीं है। अत: उन्हें वेदनाभय कैसे हो सकता है ? वे तो निरन्तर स्वयं निःशंक वर्तते हुए सहज ज्ञान का ही अनुभव करते हैं।
इसप्रकार इस कलश में यही कहा गया है कि नि:शंकित अंग के धनी सम्यग्दृष्टि जीवों के वेदनाभय भी नहीं होता और वे निरन्तर नि:शंक और निर्भय रहते हुए अपने ज्ञानस्वभाव का ही वेदन करते हैं।