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समयसार रहित होना ही सम्यग्दर्शन का नि:शंकित अंग है; क्योंकि सम्यग्दृष्टि की निर्भयता का आधार भी तो जिनदेव द्वारा प्रतिपादित तत्त्वज्ञान ही है; जिसमें यह बताया गया है कि प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है और अपने परिणमन का कर्ता-धर्ता स्वयं ही है। __ प्रत्येक आत्मा अपने जीवन-मरण और सुख-दुःख का जिम्मेवार स्वयं ही है; उसके इस परिणमन में इन्द्र या जिनेन्द्र कोई भी कुछ भी हस्तक्षेप नहीं कर सकता है।
(शार्दूलविक्रीडित ) लोकः शाश्वत एक एष सकलव्यक्तो विविक्तात्मनश्चिल्लोकं स्वयमेव केवलमयं यल्लोकयत्येककः। लोकोऽयं न तवापरस्तदपरस्तस्यास्ति तद्भीः कुतो
निश्शंकः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विंदति ।।१५५।। उक्त सप्तभयों में से इहलोकभय और परलोकभय संबंधी प्रथम कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है
(हरिगीत) इहलोक अर परलोक से मेरा न कुछ सम्बन्ध है। अर भिन्न पर से एक यह चिल्लोक ही मम लोक है।। जब जानते यह ज्ञानिजन तब होंय क्यों भयभीत वे।
वे तो सतत निःशंक हो निजज्ञान का अनुभव करें॥१५५।। पर से भिन्न आत्मा का यह चित्स्वरूप लोक ही एक शाश्वत और सदा व्यक्त लोक है; क्योंकि मात्र चित्स्वरूप लोक को यह ज्ञानी आत्मा स्वयमेव एकाकी देखता है, अनुभव करता है। यह चित्स्वरूप लोक ही मेरा लोक है - ऐसा अनुभव करनेवाले ज्ञानी को इहलोक और परलोक का भय कैसे हो; क्योंकि ज्ञानीजन तो स्वयं निरन्तर निःशंक वर्तते हए सहजज्ञान का ही अनुभव करते हैं। __ वर्तमान भव को इहलोक और आगामी भवों को परलोक कहते हैं। इस भव में जो अनुकूलता प्राप्त है, वह जीवनपर्यन्त बनी रहेगी या नहीं? इसप्रकार की चिन्ता बनी रहना इहलोकभय है और मरने के बाद परलोक में न मालूम क्या होगा - ऐसी चिन्ता का रहना परलोकभय है। __ नि:शंकित अंग के धनी सम्यग्दृष्टि जीव की दृष्टि में तो अपना ज्ञान-दर्शन स्वभाव ही अपना लोक है। इस भव संबंधी या परभव संबंधी संयोगों को वह अपना लोक नहीं मानता; इसलिए उसे इस लोक संबंधी या परलोक संबंधी संयोगों के वियोग की आशंका नहीं होती। उसे न तो इष्ट संयोगों के वियोग का भय होता और न ही अनिष्ट संयोगों के संयोग का भय होता है; क्योंकि उनमें उसका अपनापन ही नहीं होता। स्वयं के चैतन्यलोक में तो किसी पर का हस्तक्षेप संभव ही नहीं है; अत: वह ज्ञानी जीव निर्भय होकर, निःशंक होकर निरन्तर उस चैतन्यलोक का ही अनुभव करता है, उसमें ही अपनेपन का अनुभव करता है और निराकुल रहता है, नि:शंक रहता है, निर्भय रहता है।