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निर्जराधिकार ज्ञानशरीर का वियोग तो संभव ही नहीं है; क्योंकि मैं स्वयं ज्ञानस्वरूप ही हूँ और अनादि-अनंत
अविनाशी परमपदार्थ हूँ। ज्ञानी जीवों को इस दृढ़ श्रद्धा के कारण उन्हें बंध नहीं होता है, अपितु निर्जरा ही होती है।
उक्त सम्पूर्ण कथन का तात्पर्य यह है कि चाहे जैसी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियाँ आवें, फिर भी सम्यग्दृष्टि जीव आत्मश्रद्धान से च्युत नहीं होते और न किसी भी प्रकार से भयाक्रान्त होते हैं।
सम्माद्दिट्ठी जीवा णिस्संका होति णिब्भया तेण। सत्तभयविष्पमुक्का जम्हा तम्हा दुणिस्संका ।।२२८।।
सम्यग्दृष्टयो जीवा निश्शंका भवंति निर्भयास्तेन ।
सप्तभयविप्रमुक्ता यस्मात्तस्मात्तु निश्शंकाः ।।२२८।। येन नित्यमेव सम्यग्दृष्टयः सकलकर्मफलनिरभिलाषा: संतोऽत्यंतकर्मनिरपेक्षतया वर्तते, तेन नूनमेते अत्यंतनिश्शंकदारुणाध्यवसाया:संतोऽत्यंतनिर्भया:संभाव्यते ।।२२८।।
इसप्रकार सम्यक्त्व की महिमा बताकर अब आचार्यदेव सम्यक्त्व के आठ अंगों की चर्चा गाथाओं के माध्यम से करते हैं।
अब सर्वप्रथम निःशंकित अंग का स्वरूप बतानेवाली गाथा लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) निःशंक हों सदृष्टि बस इसलिए ही निर्भय रहें।
वे सप्त भय से मुक्त हैं इसलिए ही निःशंक हैं ।।२२८।। सम्यग्दृष्टि जीव निःशंक होते हैं, इसीकारण निर्भय भी होते हैं। चूँकि वे सप्तभयों से रहित होते हैं; इसलिए निःशंक होते हैं। ___ उक्त सीधी-सरल गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र दो पंक्तियों में ही स्पष्ट कर देते हैं; जो इसप्रकार है -
"चूँकि सम्यग्दृष्टि जीव सदा ही सर्वकर्मों के फल के प्रति निरभिलाष होते हैं; इसलिए वे कर्मों के प्रति अत्यन्त निरपेक्षतया वर्तते हैं।
अत्यन्त सुदृढ़ निश्चयवाले होने से वे अत्यन्त निर्भय होते हैं।"
इस गाथा की विशेषता यह है कि इसमें शंका शब्द का अर्थ भय किया गया है और सप्तभयों से रहित सम्यग्दृष्टि को नि:शंक अथवा निःशंकित अंग का धारी कहा गया है; जबकि समन्तभद्रादि आचार्यों ने शंका का अर्थ संदेह किया है और आत्मा-परमात्मा, सप्ततत्त्व एवं देव-शास्त्र-गुरु के स्वरूप को भली-भाँति समझकर नि:संदेह होने को ही नि:शंकित अंग बताया है।
इसप्रकार हम कह सकते हैं कि जैनतत्त्वज्ञान के प्रति नि:संदेह दृढ़ श्रद्धान होना और सप्तभयों से