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________________ निर्जराधिकार ३४३ जो चेतयिता आत्मा सभी धर्मों के प्रति जगुप्सा (ग्लानि) नहीं करता; उसको निर्विचिकित्सा अंग का धारी सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए। जो चेतयिता आत्मा समस्त भावों में अमूढ़ है, यथार्थ दृष्टिवाला है; उसको निश्चय से अमूढ़ -दृष्टि अंग का धारी सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए। यो न करोति जुगुप्सां चेतयिता सर्वेषामेव धर्माणाम् । सो खलु निर्विचिकित्सः सम्यग्दृष्टिातव्यः ।।२३१।। यो भवति असंमूढः चेतयिता सद्वृष्टिः सर्वभावेषु । स खलु अमूढदृष्टिः सम्यग्दृष्टिातव्यः ।।२३२।। यतो हि सम्यग्दृष्टिः टंकोत्कीर्णंकज्ञायकभावमयत्वेन सर्वेष्वपि वस्तुधर्मेषु जुगुप्साभावानिर्विचिकित्सः, ततोऽस्य विचिकित्साकृतो नास्ति बंधः, किंतु निर्जरैव । यतो हि सम्यग्दृष्टिः टंकोत्कीर्णंकज्ञायकभावमयत्वेन सर्वेष्वपि भावेषु मोहाभावादमूढदृष्टिः, ततोऽस्य मूढदृष्टिकृतो नास्ति बंध:, किंतु निर्जरैव ।।२३१-२३२॥ जो सिद्धभत्तिजुत्तो उवगृहणगो दु सव्वधम्माणं। सो उवगृहणकारी सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ।।२३३।। उम्मग्गं गच्छतं सगं पि मग्गे ठवेदि जो चेदा। सो ठिदिकरणाजुत्तो सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ।।२३४।। उक्त गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार व्यक्त किया गया है - “सम्यग्दृष्टि जीव टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमय होने के कारण सभी वस्तुधर्मों के प्रति जुगुप्सा का अभाव होने से निर्विचिकित्सा अंग का धारी और सभी भावों में मोह का अभाव होने से अमूढदृष्टि अंग का धारी है। इसलिए उसे निश्चय से विचिकित्साकृत एवं मूढदृष्टिकृत बंध नहीं होता; अपितु निर्जरा ही होती है।" ___ध्यान रहे, यहाँ उक्त दोनों गाथाओं की टीका बहुत-कुछ समान होने के कारण पुनरावृत्ति से बचने के लिए दोनों गाथाओं की टीकाओं का अर्थ एकसाथ किया गया है। इसीप्रकार का प्रयोग आगे के अंगों में भी किया जायेगा। यहाँ निर्विचिकित्सा अंग में सभी धर्मों में ग्लानि नहीं होने की एवं अमूढदृष्टि अंग में सभी भावों में मूढ़ता नहीं होने की बात कही गई है। इसप्रकार मलिनपदार्थों और मलिनभावों में ग्लानि नहीं होना निर्विचिकित्सा अंग है तथा देवशास्त्र-गुरु व जीवादि तत्त्वों की सच्ची समझ होना, इनके सन्दर्भ में मूढ़ता नहीं होना ही अमूढदृष्टि अंग है। अब उपगृहन अंग एवं स्थितिकरण अंग संबंधी गाथायें कहते हैं, जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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