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निर्जराधिकार
३३१ नहीं है। अत: अब तू भोगने की भावना से विरत हो और अपने त्रिकाली ध्रुव आत्मा में निवास कर, उसी को जान, उसी का श्रद्धान कर और उसी का ध्यान कर; इससे ही तेरा कल्याण होगा। इसप्रकार इस कलश में यही कहा गया है कि यद्यपि भोगों को भोगनेरूप जड़ की क्रिया से बंध
कर्तारं स्वफलेन यत्किल बलात्कर्मैव नो योजयेत् कुर्वाण: फललिप्सुरेव हि फलं प्राप्नोति यत्कर्मणः। ज्ञानं संस्तदपास्तरागरचनो नो बध्यते कर्मणा
कुर्वाणोऽपि हि कर्म तत्फलपरित्यागैकशीलो मुनिः ।।१५२।। पुरिसो जह को वि इहं वित्तिणिमित्तं तु सेवदे रायं । तो सो वि देदि राया विविहे भोगे सुहुप्पाए ।।२२४।। एमेव जीवपुरिसो कम्मरयं सेवदे सुहणिमित्तं । तो सो वि देदि कम्मो विविहे भोगे सुहुप्पाए ।।२२५।। जह पुण सो च्चिय पुरिसो वित्तिणिमित्तं ण सेवदे रायं। तो सो ण देदि राया विविहे भोगे सुहुप्पाए ॥२२६।। एमेव सम्मदिट्ठी विसयत्थं सेवदे ण कम्मरयं ।
तो सो ण देदि कम्मो विविहे भोगे सुहुप्पाए ।।२२७।। नहीं होता; तथापि भोगने की भावना और भोगों में सुखबुद्धि से बंध अवश्य होता है; अत: ज्ञानियों को भोगों से विरत ही रहना चाहिए। अब आगामी गाथाओं का सूचक कलश काव्य लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) तू भोग मुझको ना कहे यह कर्म निज करतार को। फलाभिलाषी जीव ही नित कर्मफल को भोगता ।। फलाभिलाषाविरत मुनिजन ज्ञानमय वर्तन करें।
सब कर्म करते हए भी वे कर्मबंधन ना करें ।।१५२।। कर्म (कार्य) उसके कर्ता को फल के साथ बलात् नहीं जोड़ता अर्थात् कर्म कर्ता से यह नहीं कहता कि तू मेरे फल को भोग; अपितु फल की इच्छावाला व्यक्ति ही कर्म को करता हुआ कर्म के फल को प्राप्त करता है। कर्म के प्रति राग नहीं रखनेवाले और ज्ञानरूप रहनेवाले मुनिराज कर्मफल के त्यागरूप स्वभाववाले होने से कर्म करते हुए भी कर्म से नहीं बँधते।