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समयसार
३३० अन्तरंग कारण ही समर्थ कारण है, निमित्तरूप बाह्य कारण नहीं। उक्त दोनों बातों को उन्होंने पर्याप्त वजन के साथ प्रस्तुत किया है।
( शार्दूलविक्रीडित ) ज्ञानिन कर्म न जात कर्तमचितं किंचित्तथाप्यच्यते भुंक्षे हंत न जातु मे यदि परं दुर्भुक्त एवासि भोः। बंध: स्यादुपभोगतो यदि न तत्किं कामचारोऽस्ति ते
ज्ञानं सन्वस बंधमेष्यपरथा स्वस्यापराधाद्धृवम् ।।१५१।। उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि ज्ञानीजन अपनी भूमिकानुसार जो भी भोग भोगते हैं; उन्हें उन भोगों के कारण कोई बंध नहीं होता। मिथ्यात्व की भूमिका में होनेवाला अनन्त संसार का कारणरूप बंध तो ज्ञानी को होता ही नहीं है; चतुर्थादि गुणस्थानों की भूमिका में होनेवाला जो भी अल्पबंध होता है, एक तो यहाँ उसे बंध के रूप में गिनते ही नहीं हैं और यदि गिनें भी तो वह भोगों के भोगने के कारण नहीं होता; तत्संबंधी रागादिभावों के कारण ही होता है, ज्ञानी की उपादानगत योग्यता के कारण ही होता है; परद्रव्यों के उपभोग के निमित्त से नहीं।
उक्त कथन का मर्म समझे बिना उसे ही आधार बनाकर भोगों में रत रहनेवाले लोगों को सावधान करने की भावना से आचार्य अमृतचन्द्र उक्त गाथाओं की टीका लिखने के उपरान्त एक छन्द लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) कर्म करना ज्ञानियों को उचित हो सकता नहीं। फिर भी भोगासक्त जो दुर्भुक्त ही वे जानिये ।। हो भोगने से बंध ना पर भोगने के भाव से।
तो बंध है बस इसलिए निज आतमा में रत रहो ।।१५१।। हे ज्ञानी ! तुझे कभी भी कोई भी कर्म करना उचित नहीं है; फिर भी यदि तू यह कहे कि 'परद्रव्य मेरा है ही नहीं और मैं उसे भोगता हूँ' - तो तू दुर्भुक्त ही है और यह महाखेद की बात
यदि तू यह कहे कि 'सिद्धान्त में यह कहा है कि परद्रव्य के उपभोग से बंध नहीं होता; इसलिए भोगता हूँ तो क्या तू भोगने की इच्छावाला है ?
अरे भाई! तू ज्ञानरूप होकर शुद्धस्वरूप में निवास कर; अन्यथा यदि भोगने की इच्छा करेगा, अज्ञानरूप परिणमित होगा तो अवश्य ही अपने अपराध से ही बंध को प्राप्त होगा।
यदि यह बात परमसत्य है कि परद्रव्य के उपभोग से बंध नहीं होता तो यह भी तो परमसत्य ही है कि भोगने की भावना से, इच्छा से, कामना से बंध होता है। अरे भाई ! तू भोगों की भावना रखे, कामना रखे और स्वयं को निर्बंध माने - यह तो उचित नहीं है, युक्तिसंगत नहीं है, शास्त्रसम्मत