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निर्जराधिकार
३२९ और जब वही शंख परद्रव्य को भोगता हुआ अथवा नहीं भोगता हआ स्वयं ही श्वेतभाव को छोड़कर कृष्णभावरूप (कालेपनरूप) परिणमित होता है, तब उसका श्वेतभाव स्वयंकृत परिणमते तदास्य श्वेतभावःस्वयंकृतः कृष्णभाव: स्यात्, तथा यदा स एव ज्ञानी परद्रव्यमुपभुजानोज्नुपभुजानो वा ज्ञान प्रहाय स्वयमेवाज्ञानेन परिणमते तदास्य ज्ञान स्वयंकृतमज्ञान स्यात्।
ततो ज्ञानिनो यदि (बन्धः) स्वापराधनिमित्तो बंधः ।।२२०-२२३।। कृष्णभाव को प्राप्त होता है। इसीप्रकार जब वही ज्ञानी परद्रव्यों को भोगता हुआ अथवा नहीं भोगता हुआ ज्ञानभाव को छोड़कर स्वयं ही अज्ञानभावरूप परिणमित होता है, तब उसका ज्ञान स्वयंकृत अज्ञानभावरूप हो जाता है।
इसीलिए ज्ञानी के यदि बंध हो तो वह स्वयंकृत ही होता है, परकृत नहीं।"
उक्त सम्पूर्ण कथन का तात्पर्य यह है कि जिसप्रकार शंख किसी अन्य पदार्थ के उपभोग के कारण कालेपन को प्राप्त नहीं होता, अपितु स्वयं ही होता है; उसीप्रकार ज्ञानी भी परपदार्थों के उपभोग के कारण बंध को प्राप्त नहीं होता, अपितु स्वयं के अपराध से बंध को प्राप्त होता है।
आत्मख्याति में समागत उक्त चार गाथाओं में से तीसरी गाथा के बाद एक गाथा तात्पर्यवृत्ति में आई है, जो आत्मख्याति में नहीं है। वह गाथा लगभग उक्त तीसरी गाथा के समान ही है। नीचे की पंक्ति तो दोनों में समान ही है, परन्तु ऊपर की पंक्ति में थोड़ा अन्तर है; जो इसप्रकार है -
जइया स एव संखो सेदसहावं तयं पजहिदूण के स्थान पर नवीन गाथा में जह संखो पोग्गलदो जइया सुक्कत्तणं पजहिदूण पद पाया जाता है।
उक्त दोनों गाथाओं का अर्थ लगभग समान होने से आचार्य जयसेन ने तात्पर्यवृत्ति में शंख के सजीव शंख और निर्जीव शंख - ऐसे दो भेद कर संगति बैठाई है।
जिसप्रकार सजीव शंख अनेक प्रकार के परपदार्थों का भक्षण करता है, पर उन भक्ष्य पदार्थों के कारण श्वेत शंख का रंग बदलकर उन पदार्थों के रंग रूप नहीं हो जाता; उसीप्रकार अजीव श्वेत शंख पर भी चाहे जैसे पदार्थों का लेप हो, पर वह श्वेत शंख उन लेपवाले पदार्थों के कारण उनके रंग रूप नहीं हो जाता। इसप्रकार सजीव और अजीव शंखों को उदाहरण बनाकर वे एक द्रव्य के कारण दूसरे द्रव्य में कोई परिवर्तन नहीं होता - इस महासिद्धान्त को समझाते हैं। __ इसके अतिरिक्त तात्पर्यवृत्ति में समागत दो बातें और भी ध्यान देने योग्य हैं। प्रथम तो यह कि वे इस बात को स्पष्ट करते हैं कि चतुर्थादि गुणस्थानों के योग्य सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्यों को उपभोग करनेवाले ज्ञानी के स्वानुभूतिमय भेदविज्ञान को अज्ञानमय करने के लिए कोई भी शक्य नहीं है।
तात्पर्य यह है कि भोगों को चाहे जैसे भोगने की बात नहीं है, भूमिकानुसार उचित भोग भोगने की ही बात है और दूसरी बात यह है कि ज्ञानी के अज्ञानरूप परिणमन में स्वकीय उपादानरूप