SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 351
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयसार ३३२ इसप्रकार इस कलश में यही कहा गया है कि भोगरूप कर्म तो कर्ता आत्मा से यह नहीं कहते कि तुम हमें भोगो; किन्तु भोगों की वांछावाला अज्ञानी जीव स्वयं उनसे जुड़कर उन्हें भोगता है पुरुषो यथा कोऽपीह वृत्तिनिमित्तं तु सेवते राजानम् । तत्सोऽपि ददाति राजा विविधान् भोगान्सुखोत्पादकान् ।।२२४।। एवमेव जीवपुरुषः कर्मरज: सेवते सुखनिमित्तम् । तत्तदपि ददाति कम विविधान् भोगान् स, खाप । द क । न ।। २२५ । । यथा पुनः स एव पुरुषो वृत्तिनिमित्तं न सेवते राजानम् । तत्सोऽपिन ददाति राजा विविधान्भोगान्सुखोत्पादकान् ।।२२६।। एवमेव सम्यग्दृष्टिः विषयार्थं सेवते न कर्मरजः। तत्तन्न ददाति कर्म विविधान् भोगान् सुखोत्पादकान् ।।२२७।। और कर्मबंधन को प्राप्त होता है; किन्तु सम्यग्दृष्टि ज्ञानी मुनि कर्मफल की वांछा से रहित होने के कारण, ज्ञानरूप रहने के कारण भोगरूप कर्म में प्रवर्तित होते हुए भी कर्मबंधन को प्राप्त नहीं होते। जो बात उत्थानिकारूप विगत कलश में कही गई है, अब उसी बात को गाथाओं में सोदाहरण समझाते हैं; जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है - आजीविका के हेतु नर ज्यों नृपति की सेवा करे। तो नरपती भी सबतरह उसके लिए सुविधा करे ।।२२४।। इस ही तरह जब जीव सुख के हेतु सेवे कर्मरज । तो कर्मरज भी सबतरह उसके लिए सुविधा करे ।।२२५।। आजीविका के हेतु जब नर नृपति सेवा ना करे। तब नृपति भी उसके लिए उसतरह सुविधा ना करे ।।२२६।। त्यों कर्मरज सेवे नहीं जब जीव सुख के हेतु से। तो कर्मरज उसके लिए उसतरह सुविधा ना करे ।।२२७।। जिसप्रकार इस जगत में कोई भी पुरुष आजीविका के लिए राजा की सेवा करता है तो वह राजा भी उसे अनेकप्रकार की सुखोत्पादक भोगसामग्री देता है; उसीप्रकार जीवरूपी पुरुष सुख के लिए कर्मरज का सेवन करता है तो वह कर्म भी उसे अनेकप्रकार की सुखोत्पादक भोगसामग्री देता है। जिसप्रकार वही पुरुष आजीविका के लिए राजा की सेवा नहीं करता तो वह राजा भी उसे अनेकप्रकार की सुखोत्पादक भोगसामग्री नहीं देता है; उसीप्रकार सम्यग्दृष्टि विषयभोगों के
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy