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________________ पूर्वरंग त्वेनात्यंतविसंवादिन्यपि कामभोगानुबद्धा कथा । इदं तु नित्यव्यक्ततयांत:प्रकाशमानमपि कषायचक्रेण सहकीक्रियमाणत्वादत्यंततिरोभूतं सत् स्वस्यानात्मज्ञतया परेषामात्मज्ञानामनुपासनाच्च न कदाचिदपि श्रुतपूर्वं न कदाचिदपि परिचितपूर्वं न कदाचिदप्यनुभूतपूर्वं च निर्मलविवेकालोकविविक्तं केवलमेकत्वम् । अत एकत्वस्य न सुलभत्वम् ।।४।। किन्त निर्मल भेदज्ञानज्योति से स्पष्ट भिन्न दिखाई देनेवाला आत्मा का एकत्व अथवा एकत्व-विभक्त आत्मा यद्यपि अंतरंग में प्रगटरूप से प्रकाशमान है; तथापि कषाय-चक्र के साथ एकरूप किये जाने से अत्यन्त तिरोभूत हो रहा है। जगत के जीव एक तो अपने को जानते नहीं हैं और जो आत्मा को जानते हैं, उनकी सेवा नहीं करते हैं, उनकी संगति में नहीं रहते हैं। इसकारण इस एकत्व-विभक्त आत्मा की बात जगत के जीवों ने न तो कभी सुनी है और न कभी इसका परिचय प्राप्त किया है और न कभी यह आत्मा जगत के जीवों के अनुभव में ही आया है। यही कारण है कि भिन्न आत्मा का एकत्व सुलभ नहीं है।" ___ अनादिकाल से यह आत्मा पंचेन्द्रिय के विषयों में सुख मानता हुआ उन्हीं के संग्रह और भोगने में मग्न है। पुण्योदय से या कालक्रमानुसार मनुष्य पर्याय पाकर भी अनादि अभ्यास के कारण यह पंचेन्द्रियों के विषयों को ही जोडने और भोगने में लगा रहता है। धर्म के नाम पर भी जिन भावों से पुण्य-पाप बँधता है, उन भावों का ही विचार करता है, चर्चा-वार्ता करता है, गुणस्थानादि की चर्चा करके या कुछ बाह्याचार पालकर अपने को धर्मात्मा मान लेता है। धर्म के नाम पर भी कर्मबंध की ही चर्चा करता है, पर और रागादि से भिन्न निज भगवान आत्मा का विचार ही नहीं करता है। कर्म से बँधने की बात तो बहुत दूर, कर्म ने तो आत्मा को आज तक छुआ ही नहीं - यह बात आजतक इसके कान में ही नहीं पड़ी है; पड़ी भी हो तो इसने उस पर ध्यान ही नहीं दिया है, विचार ही नहीं किया है। एक तो एकत्व-विभक्त भगवान आत्मा के बारे में स्वयं कुछ जानता नहीं है; दूसरे जो ज्ञानी धर्मात्मा-जन भगवान आत्मा के स्वरूप को भलीभाँति जानते हैं; उनकी सेवा नहीं करता, उनका समागम नहीं करता, उनसे कुछ सीखने-समझने की कोशिश नहीं करता; यदि आगे होकर भी वे कुछ सुनायें, समझायें तो यह उनकी बात पर ध्यान ही नहीं देता; इसलिए अनन्तकाल से संसार में भटक रहा है। यहाँ आचार्यदेव ज्ञानियों के सत्समागम की प्रेरणा देते हुए कह रहे हैं कि भाई ! तू ज्ञानियों की सेवा कर, उनकी बात पर ध्यान दे। तुझे पता नहीं है कि भगवान आत्मा को नहीं पहिचानने से तेरी कैसी दुर्दशा हो रही है ? अज्ञानी की दुर्दशा का चित्र खींचते हए टीका में कहा गया है कि यह लोक संसाररूपी चक्की के पाटों के बीच अनाज के दानों के समान पिस रहा है, मोहरूपी भूत इसे पशुओं की भाँति जोत रहा है, तृष्णारूपी रोग से यह जल रहा है, विषय-भोग की मृगतृष्णा में फँसकर मृग की भाँति भटक रहा है। आश्चर्य तो यह है कि पंचेन्द्रिय विषयों में उलझा हुआ, फँसा हुआ यह अज्ञानी लोक परस्पर आचार्यत्व भी करता है।
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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