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अथैतदसुलभत्वेन विभाव्यते
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सुदपरिचिदाणुभूदा सव्वस्स वि कामभोगबंधकहा । एयत्तस्सुवलंभो णवरि ण सुलहो विहत्तस्स ॥४॥ श्रुतपरिचितानुभूता सर्वस्यापि कामभोगबंधकथा । एकत्वस्योपलंभः केवलं न सुलभो विभक्तस्य ।।४।।
समयसार
इह किल सकलस्यापि जीवलोकस्य संसारचक्रक्रोडाधिरोपितस्याश्रांतमनंतद्रव्य क्षेत्रकालभवभावपरावर्तैः समुपक्रांतभ्रांतेरेकच्छत्रीकृतविश्वतया महता मोहग्रहेण गोरिव वाह्यमानस्य प्रसभोजृम्भिततृष्णातंकत्वेन व्यक्तांतराधेरुत्तम्योत्तम्य मृगतृष्णायमानं विषयग्राममुपरुन्धानस्य परस्परमाचार्यत्वमाचरतोऽनंतशः श्रुतपूर्वानंतशः परिचितपूर्वानंतशोऽनुभूतपूर्वा चैकत्वविरुद्ध
( हरिगीत )
सबकी सुनी अनुभूत परिचित भोग बंधन की कथा ।
पर से पृथक् एकत्व की उपलब्धि केवल सुलभ ना । । ४ । ।
काम, भोग और बंध की कथा तो सम्पूर्ण लोक ने खूब सुनी है, उसका परिचय भी प्राप्त किया है और उनका अनुभव भी किया है; अत: वह तो सर्वसुलभ ही है; परन्तु पर से भिन्न और अपने से अभिन्न भगवान आत्मा की कथा न कभी सुनी है, न उसका कभी परिचय प्राप्त किया है और न कभी उसका अनुभव ही किया है; अत: वह सुलभ नहीं है ।
यही कारण है कि आचार्यदेव उस असुलभ कथा को इस समयसार ग्रन्थाधिराज के माध्यम से सुलभ कराना चाहते हैं ।
यद्यपि लोक में काम और भोग शब्द लगभग एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं, तथापि आचार्य जयसेन उक्त अर्थ को स्वीकार करते हुए भी अथवा कहकर 'काम' शब्द का अर्थ स्पर्शन और रसना इन्द्रिय का विषय करते हैं और 'भोग' शब्द का अर्थ घ्राण, चक्षु एवं कर्ण इन्द्रिय का विषय करते हैं ।
इसप्रकार काम - भोगकथा का अर्थ पंचेन्द्रिय विषयों की कथा हो जाता है। आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति टीका में इसका भाव इसप्रकार व्यक्त करते हैं
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“यद्यपि यह कामभोग सम्बन्धी ( कामभोगानुबद्धा) कथा एकत्व से विरुद्ध होने से अत्यंत विसंवाद करानेवाली है; तथापि समस्त जीवलोक ने इसे अनन्तबार सुना है, अनन्तबार इसका परिचय प्राप्त किया है और अनन्तबार इसका अनुभव भी किया है।
संसाररूपी चक्र के मध्य में स्थित; द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप अनन्त पंचपरावर्तन से भ्रमण को प्राप्त; अपने एकछत्र राज्य से समस्त विश्व को वशीभूत करनेवाला महामोहरूपी भूत जिसे बैल की भाँति जोतता है, भार वहन कराता है; अत्यन्त वेगवान तृष्णारूपी रोग के दाह में संतप्त एवं आकुलित होकर जिसप्रकार मृग मृगजल के वशीभूत होकर जंगल में भटकता है; उसीप्रकार पंचेन्द्रियों के विषयों से घिरा हुआ है या पंचेन्द्रियों के विषयों को घेर रखा है जिसने; ऐसा यह जीवलोक इस विषय में परस्पर आचार्यत्व भी करता है, एक-दूसरे को समझाता है, सिखाता है, प्रेरणा देता है। यही कारण है कि काम - भोग-बंधकथा सबको सुलभ है।