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समयसार
___ अत एवैतदुपदर्श्यते -
*तं एयत्तविहत्तं दाएहं अप्पणो सविहवेण। जदि दाएज्ज पमाणं चुक्केज्ज छलं ण घेत्तव्वं ।।५।।
तमेकत्वविभक्तं दर्शयेहमात्मनः स्वविभवेन।
यदि दर्शयेयं प्रमाणं स्खलेयं छलं न गृहीतव्यम् ।।५।। इह किल सकलोद्भासिस्यात्पदमुद्रितशब्दब्रह्मोपासनजन्मा समस्तविपक्षक्षोदक्षमातिनिस्तुषयुक्त्यवलंबनजन्मा निर्मलविज्ञानघनांतर्निमग्नपरापरगुरुप्रसादीकृतशुद्धात्मतत्त्वानुशासनजन्मा अनवरतस्यंदिसुन्दरानंदमुद्रितामंदसंविदात्मकस्वसंवेदनजन्मा च यः कश्चनापि ममात्मनः स्वो
लोग विषय-कषाय की चतुराई एक-दूसरे को बताते हैं, सिखाते हैं। पैसा कैसे कमाना. उसे कैसे भोगना - आदि बातें जगत को बताते हैं, उन्हीं कार्यों को करने की प्रेरणा भी देते हैं।
अब इस पाँचवीं गाथा में आचार्यदेव एकत्व-विभक्त आत्मा का स्वरूप दिखाने की प्रतिज्ञा करते हैं और पाठकों से अनुरोध करते हैं कि तुम इसके माध्यम से निज भगवान आत्मा का स्वरूप जानकर विशुद्ध आत्मकल्याण की भावना से स्वीकार करना । इससे तुम्हारा कल्याण अवश्य होगा। मूल गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) निज विभव से एकत्व ही दिखला रहा करना मनन ।
पर नहीं करना छल ग्रहण यदि हो कहीं कुछ स्खलन ।।५।। मैं उस एकत्व-विभक्त भगवान आत्मा को निज वैभव से दिखाता हूँ। यदि मैं दिखाऊँ तो प्रमाण करना, स्वीकार करना और यदि चूक जाऊँ तो छल ग्रहण नहीं करना।
यहाँ आचार्यदेव कहते हैं कि मैं अपने सम्पूर्ण वैभव से आत्मा की बात समझाऊँगा और तुम अपने बुद्धिरूप वैभव से सम्पूर्ण शक्ति लगाकर इसे समझने का प्रयास करना । यदि मैं अपने प्रयास में सफल होऊँ और भगवान आत्मा का स्वरूप स्पष्ट कर सकूँ तो तुम उसे अपने अनुभव से प्रमाणित करना, श्रद्धापूर्वक स्वीकार करना । यदि मैं चूक जाऊँ तो किसी भी प्रकार का छल ग्रहण नहीं करना ।
आचार्य अमृतचन्द्र ने इस गाथा की टीका लिखते समय अधिकतम विस्तार ‘निजवैभव' शब्द की व्याख्या में ही दिया है। उनके द्वारा लिखित इस गाथा की टीका का मूल भाव इसप्रकार है - ___ “मेरे निजवैभव का जन्म लोक की समस्त वस्तुओं के प्रकाशक 'स्यात्' पद की मुद्रावाले शब्दब्रह्म (परमागम) की उपासना से हुआ है; समस्त विपक्षी अन्यवादियों द्वारा गृहीत एकान्तपक्ष के निराकरण में समर्थ अतिनिस्तुष निर्बाध युक्तियों के अवलम्बन से हुआ है। निर्मल विज्ञानघन आत्मा में अन्तर्मग्न परमगुरु सर्वज्ञदेव, अपरगुरु गणधरादिक से लेकर हमारे गुरुपर्यन्त समस्त आचार्य परम्परा से प्रसाद के रूप में प्राप्त शुद्धात्मतत्त्व के उपदेशरूप अनुगृह से एवं निरन्तर झरते हुए, स्वाद में आते हुए सुन्दर आनन्द की मुद्रा से युक्त स्वसंवेदन से मेरे वैभव का जन्म हुआ है।
इसप्रकार शब्दब्रह्म की उपासना से, निर्बाध युक्तियों के अवलम्बन से, गणधरादि आचार्य परम्परा के उपदेश से एवं आत्मानुभव से जन्मे अपने सम्पूर्ण ज्ञानवैभव से मैं उस एकत्वविभक्त भगवान आत्मा को दिखाने के लिए कटिबद्ध हूँ, कृतसंकल्प हूँ; इस व्यवसाय से मैं बद्ध हूँ, सन्नद्ध हूँ।