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________________ ३१५ निर्जराधिकार परिग्रह वास्तव में मेरा है ही नहीं। ___यदि परद्रव्यमजीवमहं परिगृह्णीयां तदावश्यमेवाजीवोममासौ स्व: स्यात्, अहमप्यवश्यमेवाजीवस्यामुष्य स्वामी स्याम् । अजीवस्य तु यः स्वामी, स किलाजीव एव । एवमवशेनापि ममाजीवत्व-मापद्येत । मम तु एको ज्ञायक एव भावः यः स्वः, अस्यैवाहं स्वामी; ततो मा भून्ममाजीवत्वं, ज्ञातैवाहं भविष्यामि, न परद्रव्यं परिगृह्णामि।। अयं च मे निश्चयः - छिद्यतां वा, भिद्यतां वा, नीयतां वा, विप्रलयं यातु वा, यतस्ततो गच्छतु वा, तथापि न परद्रव्यं परिगृह्णामि; यतो न परद्रव्यं मम स्वं, नाहं परद्रव्यस्य स्वामी, परद्रव्यमेव परद्रव्यस्य स्वं, परद्रव्यमेव परद्रव्यस्य स्वामी, अहमेव मम, स्वं अहमेव मम स्वामी इति जानामि ।।२०८-२०९॥ (वसन्ततिलका) इत्थं परिग्रहमपास्य समस्तमेव सामान्यतः स्वपरयोरविवेकहेतम। अज्ञानमुज्झितुमना अधुना विशेषाद् भूयस्तमेव परिहर्तुमयं प्रवृत्त: ।।१४पाा इन गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार व्यक्त किया गया है “यदि अजीव परद्रव्यरूप परिग्रह को मैं अपना मानें तो वह अवश्य ही मेरा स्व होगा और मैं उसका स्वामी हो जाऊँगा तथा जो अजीव का स्वामी होगा, वह वास्तव में अजीव ही होगा। इसप्रकार अवशतः (लाचारी से) मुझमें अजीवत्व आ पड़ेगा। ___मेरा स्व तो एक ज्ञायकभाव ही है और मैं उसी का स्वामी हूँ; इसलिए मुझको अजीवत्व न हो । मैं तो ज्ञाता ही रहूँगा और परद्रव्य का परिग्रह नहीं करूँगा। मेरा यह निश्चय है कि परद्रव्य छिदे अथवा भिदे अथवा कोई उसे ले जाये अथवा प्रलय को प्राप्त हो जाये अथवा चाहे जहाँ जाये; जो भी हो मैं परद्रव्य को ग्रहण नहीं करता; क्योंकि परद्रव्य मेरा स्व नहीं है और मैं उसका स्वामी नहीं हूँ; परद्रव्य ही परद्रव्य का स्व है और परद्रव्य ही परद्रव्य का स्वामी है तथा मैं ही मेरा स्व हूँ और मैं ही मेरा स्वामी हूँ - ऐसा मैं जानता हूँ।" उक्त गाथाओं में चौबीसों प्रकार के परिग्रहों को छोड़ने की बात सामान्यत: कही गई है और अब आगामी गाथाओं में उन्हीं परिग्रहों को छोड़ने की बात विशेषरूप से कहेंगे। इस बात का संकेत इन गाथाओं के बाद आनेवाले कलश में किया गया है; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है - (सोरठा) सभी परिग्रह त्याग, इसप्रकार सामान्य से। विविध वस्तु परित्याग, अब आगे विस्तार से ।।१४५।। इसप्रकार समस्त परिग्रह को सामान्यतः छोड़कर अब स्व-पर के अविवेक के कारणरूप अज्ञान को छोड़ने के मनवाला ज्ञानी जीव पुन: उसी परिग्रह को विशेष रूप से छोड़ने के लिए
SR No.008377
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size1 MB
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