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प्रवृत्त हुआ
है।
अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णेच्छदे धम्मं । अपरिग्गहो दु धम्मस्स जाणगो तेण सो होदि । । २१० । । अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णेच्छदि अधम्मं । अपरिग्गहो अधम्मस्स जाणगो तेण सो होदि ।। २११ ।। अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णेच्छदे असणं । अपरिग्गहो दु असणस्स जाणगो तेण सो होदि । । २१२ ।। अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णेच्छदे पाणं । अपरिग्गहो दु पाणस्स जाणगो तेण सो होदि । । २१३ ।। एमादिए दु विविहे सव्वे भावे य णेच्छदे णाणी । जाणगभावो णियदो णीरालंबो दु सव्वत्थ । । २१४।।
इस छन्द का अर्थ इसप्रकार भी किया जा सकता है इसप्रकार स्वपर के अविवेक के कारणरूप समस्त परिग्रह को सामान्यतः छोड़कर अब अज्ञान को छोड़ने का मनवाला जीव पुनः उस परिग्रह को ही विशेष रूप से छोड़ने के लिए प्रवृत्त हुआ है।
इस कलश में मात्र यही कहा है कि अबतक सभी परिग्रह के त्याग की चर्चा बिना किसी परिग्रह के नामोल्लेख किये सामान्यरूप से की गई है और अब उसी बात को दृढ़ करने के लिए विशेष नामोल्लेखपूर्वक विस्तार से कहते हैं, जिससे परिग्रह त्याग की भावना बलवती हो ।
सामान्य त्याग की बात कहने के उपरान्त अब इन गाथाओं में नामोल्लेखपूर्वक विशेष त्याग की बात कह रहे हैं -
हरिगीत
है अनिच्छुक अपरिग्रही ज्ञानी न चाहे धर्म को ।
है परीग्रह ना धर्म का वह धर्म का ज्ञायक रहे ।। २१० ।।
समयसार
है अनिच्छुक अपरिग्रही ज्ञानी न चाहे अधर्म को ।
है परिग्रह ना अधर्म का वह अधर्म का ज्ञायक रहे । । २११ ।।
है अनिच्छुक अपरिग्रही ज्ञानी न चाहे असन को ।
है परिग्रह ना असन का वह असन का ज्ञायक रहे ।। २१२ ।।
है अनिच्छुक अपरिग्रही ज्ञानी न चाहे पेय को ।
है परिग्रह ना पेय का वह पेय का ज्ञायक रहे ।। २१३ ।। इत्यादि विध-विध भाव जो ज्ञानी न चाहे सभी को ।